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रूस-यूक्रेन तनाव: खुले भारत की भी आंखें

आर.के. सिन्हा

रूस-यूक्रेन के बीच जंग की स्थितियां लगातार बनी हुई हैं। आशंका है कि रूस कभी भी यूक्रेन पर हमला कर सकता है। इस अप्रिय स्थिति के चलते भारत के सामने भी बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। भारत के हजारों विद्यार्थी यूक्रेन में हैं। ये वहां मेडिकल, डेंटल, नर्सिंग और दूसरे पेशेवर कोर्स कर रहे हैं। रूस-यूक्रेन के बीच होने वाली संभावित जंग को देखते हुए ये छात्र वहां से निकल कर स्वदेश आना चाहते हैं। सवाल यह है कि इतनी अधिक संख्या में यूक्रेन की राजधानी कीव और दूसरे शहरों में पढ़ रहे भारतीय नौजवानों को स्वदेश लाने के लिए कितनी उड़ानें भरनी होंगी। सरकार की तरफ से शीर्ष स्तर पर इस बिन्दु पर विचार हो रहा है और इंतजाम की तैयारियां तेजी से चल रही हैं।

जाहिर है, इस काम को प्राथमिकता के आधार पर करने की जरूरत है। चूंकि एयर इंडिया का स्वामित्व अब भारत सरकार के पास नहीं है तो यह देखना होगा कि सरकार की एयर इंडिया के नए मालिक टाटा समूह से यूक्रेन में फंसे हुए भारतीयों को लाने को लेकर बातचीत कहां तक पहुंची है। क्या भारत सरकार एयर इंडिया के अलावा अन्य एयरलाइंस की भी सेवाएं लेगी इस महत्वपूर्ण मिशन के लिए? ऐसी स्थिति में जबकि रूस ने यूक्रेन से लगी सरहद पर सवा लाख सैनिकों को पूरे साजो-सामान के साथ युद्ध के लिए तैनात कर रखा है।

अगर हम बात साल 2014 से ही शुरू करें तो भारत ने अन्य देशों में फंसे भारतीयों को सुरक्षित स्वदेश लाने के लिए अपने सारे संसाधन झोंक दिए। अफगानिस्तान संकट के समय हम अपने हजारों नागरिकों को सुरक्षित देश लेकर आए। भारतीय वायुसेना और एयर इंडिया के विमान लगातार अफगानिस्तान से भारतीयों को लेकर स्वदेश लाते रहे। इनको ताजिकिस्तान तथा कतर के रास्ते दिल्ली या देश के अन्य भागों में लाया गया। इससे पहले टोगो में साल 2013 से जेल में बंद पांच भारतीय को सुरक्षित रिहा करवाया गया और फिर उन्हें स्वदेश भी लाया गया। इसी तरह भारत सरकार त्वरित कार्यवाही करते हुये 2015 में यमन में फंसे हजारों भारतीयों को सुरक्षित स्वदेश लेकर आयी थी। इन्हें भारतीय नौसेना के युद्धपोत आईएनएस सुमित्रा से जिबूती ले जाया गया था। जिबूती से इन लोगों को चार विमानों से भारत वापस लाया गया।

ये तमाम उदाहरण हाल के दौर के हैं जो साबित करते हैं कि भारत अन्य देशों में फंसे अपने नागरिकों को स्वदेश लाने में सक्षम और समर्थ है। भारत सरकार ऐसी स्थितियों में हाथ पर हाथ धरे रखकर पूर्ववर्ती सरकारों की तरह अपनी मजबूरी प्रदर्शित करने के लिए तैयार नहीं है।

इस बीच, केन्द्र और राज्य सरकारों को फौरन विचार करना होगा कि यूक्रेन में इतनी बड़ा संख्या में भारतीय विद्यार्थी जाते ही क्यों हैं। इनके वहां या अन्य देशों में पढ़ने के लिए जाने के कारण हर साल भारत सरकार को अरबों रुपए की विदेशी मुद्रा व्यय करनी पड़ती है। आखिर हम अपने देश में पर्याप्त मेडिकल, इंजीनियरिंग सहित दूसरे कोर्सों की डिग्री दिलवाने वाले पर्याप्त संख्या में कॉलेज कब खोल सकेंगे। यह भी सोचना होगा कि हमारे देश में शिक्षा का स्तर क्या इतना स्तरीय नहीं है कि हर साल लाखों बच्चे श्रेष्ठ शिक्षा के लिए देश से बाहर चल जाते हैं? क्यों हम अपने शिक्षण संस्थानों में अच्छी फैक्ल्टी और दूसरी सुविधाएं नहीं दे पा रहे हैं?

आगे बढ़ने से पहले कुछ आकड़ों को ही जरा देख लेते हैं। भारत से साल 2018-19 के दौरान 6.20 लाख विद्यार्थी पढ़ने के लिए देश से बाहर गए। ये आंकड़े मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने ही प्रकाशित किये हैं। साल 2017-18 में 7.86 लाख विद्य़ार्थी देश से बाहर पढ़ने के लिए गए थे। ये अधिकतर स्नातक की डिग्री लेने के लिए अन्य देशों का रुख करते हैं। जाहिर है, इन लाखों विद्यार्थियों के लिए देश को अरबों रुपया अन्य देशों को देना पड़ता है विदेशी मुद्रा में।

हां, अगर भारतीय विद्यार्थी किसी खास शोध आदि के लिए अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) या कोलोरोडो जैसे विश्वविद्लायों में दाखिला लेते हैं, तो बात समझ में भी आती है। सब जानते हैं कि अमेरिका के कुछ विश्वविद्यालय अपनी श्रेष्ठ फैक्ल्टी और दूसरी सुविधाओं की वजह से संसार के सबसे श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान के रूप में अपने को स्थापित कर चुके हैं। यही बात ब्रिटेन के आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों को लेकर भी कही जा सकती हैं। इनमें नोबेल पुरस्कार विजेता तक पढ़ाते हैं। इसलिए इनमें दाखिला लेने में कोई बुराई नहीं है।

फिर हमारे प्रमुख शिक्षण संस्थानों जैसे आईआईटी और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी तो विदेशी छात्र- छात्राएं आते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में अफ्रीकी देशों जैसे केन्या, सूडान और कांगों, मॉरिशस, गुयाना, त्रिनिदाद, सूरीनाम, फिजी आदि देशों से बहुत विद्यार्थी आते हैं। अफ्रीकी देश मालावी के राष्ट्रपति बिंगु वा मुथारिका दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कालेज ऑफ कॉमर्स और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स के ही छात्र थे। राजधानी के स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर एंड प्लानिंग (एसपीए) से नेपाल के 36वें प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टरई पढ़े। देश में गगन चुंबी इमारतों, हाईवे, फ्लाईओवर, पुलों वगैरह के निर्माण करने में यहां से पढ़े छात्र-छात्राओं का खास योगदान रहा है। इसकी स्थापना 1959 हुई थी। यहां पर ईरान, सिंगापुर, मलेशिया, अफ्रीकी देशों के छात्र-छात्राएं भी आते ही रहते हैं।

कहने का मतलब यह है कि भारत के श्रेष्ठतम दिल्ली विश्वविद्यालयों में विदेशी आएं और हमारे नौजवान संसार के स्तरीय संस्थानों में जाएं तो कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन, अगर भारतीय युवा होटल मैनेजमेंट, एमबीए या सामान्य स्नातक डिग्री जैसे कोर्सेज के लिए विदेशों का रुख करने लगें तो यह एक प्रकार से गंभीर बात ही मानी जाएगी। एक बात जान ली जाए कि भारत से नौजवानों को पढ़ने के लिए बाहर जाने से हम तब ही रोक सकेंगे जब हमारे यहां पर्याप्त और बेहतरीन शिक्षण संस्थान होंगे।

रूस-यूक्रेन संकट हमें बहुत कुछ सीखने का मौका दे रहा है। निश्चत रूप से हम अपने नागरिकों को यूक्रेन से निकाल लाने में सफल तो हो जाएंगे। हमारे वर्तमान सरकार में यह क्षमता है। लेकिन, अब हमें अपने यहां ही इतनी श्रेष्ठ शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी ताकि हमारे नौजवानों को अपने ही देश के अच्छे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दाखिला मिल जाए। हमें अपने मेधावी नौजवानों को शिक्षा के क्षेत्र से जोड़ना होगा। उन्हें शिक्षक बनने के लिए भी प्रेरित करना होगा। उन्हें बेहतर सुविधाएं भी देनी होगी। इसके अलावा शिक्षा में शोध पर भी पर्याप्त बल देना होगा। यानी भारत की अब आंखें खुल जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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