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(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) जब पाकीजा का नाम बदलने की नौबत आई…

अजय कुमार शर्मा

हिंदी सिनेमा के इतिहास में दो फिल्में अपने निर्देशकों के जुनून और अपनी भव्य प्रस्तुति के लिए जानी जाती हैं। के आसिफ की मुगले-ए-आजम और कमाल अमरोही की पाकीजा। दोनों फिल्मों के बनने में लंबा समय लगा और पैसा भी पानी की तरह बहा, लेकिन इनकी सफलता ने यह भी सिद्ध किया कि फिल्म की श्रेष्ठता के लिए किए गए सच्चे प्रयासों को कहीं न कहीं जनता भी पसंद करती है। कमाल अमरोही की पाकीजा का मुहूर्त उनके जन्मदिन पर 17 जनवरी 1957 को किया गया था और फिल्म 4 फरवरी 1972 को रिलीज हुई। इन 15 वर्षों में सात साल ऐसे हैं जब फिल्म पूरी तरह बंद रही। फिल्म ‘एक वेश्या भी मन से पवित्र हो सकती है’ के विचार को लेकर बनाई गई थी। अन्य विवादों के अलावा कमाल अमरोही और उनकी पत्नी मीना कुमारी जो फिल्म की नायिका थीं, के बीच का मनमुटाव भी फिल्म की देरी का मुख्य कारण था। हालांकि फिल्म के गीत “मौसम है आशिकाना” की रिकार्डिंग के समय वहां उपस्थित एक ज्योतिषी जिनका नाम चार्ली था ने कमाल अमरोही को यह फिल्म न बनाने की सलाह दी थी। उसका कहना था कि यह फिल्म आप पूरी नहीं कर पाएंगे। इसमें बहुत मुश्किलें आएंगी।

कमाल अमरोही ने ज्योतिषी को चुनौती देते हुए कहा कि यदि मैं फिल्म पूरी करके दिखा दूं तो क्या होगा? इस पर ज्योतिषी का जवाब था कि तब तो यह फिल्म अमर हो जाएगी। उस समय तो बात आई गई हो गई, लेकिन सचमुच कमाल अमरोही को हजारों रुकावटें आईं। कई सितारों को बदला गया और उनके हिस्सों की शूटिंग बार-बार की गई। पहले फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट बनाई जा रही थी, लेकिन मीना कुमारी के कहने पर रंगीन बनाने के कारण कई गाने फिर फिल्माए गए। इस फिल्म में फिल्माए गए गीत यादगार थे। ठाड़े रहियो…, इन्हीं लोगों ने… और चलते-चलते… ये तीन गीत एक साल में शूट किए गए थे। पहले कमाल अमरोही ने खुद ही नायक की भूमिका करने का फैसला किया था और अन्य भूमिकाओं के लिए सप्रू, मेहताब, कमल कपूर, प्रतिमा देवी आदि कलाकारों को चुना गया था, लेकिन कुछ ही दिन के शूट में उन्हें लग गया कि अभिनय उनके बस की बात नहीं तो फिर अशोक कुमार को लिया गया। इस बीच डेढ़ साल में कोठे का सेट बनकर तैयार हुआ फिल्मीस्तान स्टूडियो में। पटकथा में रोज बदलाव होते तो सितारे भी बदलने लगे। एक नायक की जगह दो नायक हुए। राजेंद्र कुमार ने मना किया तो सुनील दत्त से बात की गई, उन्होंने भी मना कर दिया तो फिर धर्मेंद्र को यह रोल दिया गया और उन पर कई शॉट फिल्माए गए। इसके बाद मीना कुमारी द्वारा कमाल का घर छोड़कर अलग रहने के कारण फिल्म लंबे समय के लिए बंद हो गई।

आखिर सात साल के लंबे समय बाद शूटिंग फिर शुरू हुई तो धर्मेंद्र की जगह राजकुमार को लिया गया। मीना कुमारी की सहेली के रूप में सोहराब मोदी की पत्नी मेहताब के साथ काफी शूटिंग के बाद उनकी जगह नादिरा को लिया गया और उनके द्वारा नखरे दिखाने पर उनका रोल कम किया गया तथा उसकी भरपाई के लिए एक पात्र और जोड़ा गया। इस बीच मीना कुमारी की तबीयत खराब रहने के कारण कई बार शूटिंग की सारी तैयारी करने के बाद भी शूटिंग कैंसिल कर दी जाती थी। राजकुमार की सनक से भी शूटिंग में देर हुआ करती थी। एक बार तो कमाल अमरोही को उनके खिलाफ इंपा में शिकायत करनी पड़ी और नोटिस भी भिजवाना पड़ा। इधर अमरोही साहब भी एक एक शॉट के लिए कई-कई महीने लगाते और उसको बिल्कुल संतुष्ट हो जाने के बाद ही ओके करते।

यह तो गनीमत थी कि फिल्म के 14 गीत जो अपनी मिसाल आप थे, फिल्म बनने के आरंभ में ही गुलाम हैदर साहब से रिकार्ड करवा लिए गए थे। आखिर किसी तरह फिल्म बनी और बेहद सफल रही, लेकिन मीना कुमारी इसकी सफलता न देख सकीं। फिल्म रिलीज होने के दो महीनों के अंदर ही उनकी मृत्यु हो गई थी।

चलते-चलते

ज्योतिष में अमरोही को जरा भी विश्वास नहीं था, परंतु फिल्म निर्माण में आ रही लगातार समस्याओं से, उनका मन भी विचलित होने लगा था। रिकॉर्डिंग के समय चार्ली नामक ज्योतिषी की बताई 90 प्रतिशत बातें सच साबित हुई थीं। इस बीच अंक शास्त्र के ज्ञाता एक परिचित ने अमरोही को फिल्म का शीर्षक बदलने की सलाह दी। कमाल साहब ने आखिर फिल्म का नाम बदलना तय किया पर पाकीजा के अलावा और क्या नाम रखा जाए? वे समझ नहीं पा रहे थे। काफी सोच-विचार के बाद फिल्म के क्लाइमैक्स सीन के अनुरूप नाम रखने का विचार किया गया जिसमें मुजरा खत्म होते ही एक महिला तेज आवाज में शहाबुद्दीन को पुकारकर कहती है…“शहाबुद्दीन… ये तुम्हारा ही लहू है… देखो आज क्या रंग लाया है!” इसलिए फिल्म का शीर्षक “लहू पुकारेगा ” रखा गया, परंतु अमरोही के दिलो-दिमाग से पाकीजा शीर्षक हटने का नाम ही नहीं ले रहा था । यह शीर्षक कहानी के हिसाब से सटीक था। सुनने, बोलने और अपने अर्थ में भी सरल था। लहू पुकारेगा शीर्षक बोलने, सुनने में रूखा सा लगता था। कई महीनों तक माथापच्ची के बाद भी कोई सही शीर्षक न मिलने पर अमरोही ने पाकीजा ही शीर्षक कायम रखा और सभी भविष्यवाणियों को झूठा साबित कर दिया।

(लेखक, राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)

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