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हालात की मारी-प्रकृति बेचारी

ऋतुपर्ण दवे

सच में प्रकृति की अनदेखी वो बड़ी भूल है जो पूरी मानवता के लिए जीवन-मरण का सवाल है। बस वैज्ञानिकों तक ज्वलंत विषय की सीमा सीमित कर कर्तव्यों की इतिश्री मान हमने वो बड़ी भूल या ढिठाई की है जिसका खामियाजा हमारी भावी पीढ़ी भुगतेगी। इसे हम जानते हैं, लेकिन फिर भी हैं कि मानते नहीं। इसे नाइंसाफी कहें या गद्दारी, कुछ भी कह लें लेकिन सच है। यह कभी क्यों नहीं चुनावी एजेंडा बनता कि राजनीतिक दलों, उनके आकाओं, जनप्रतिनिधियों तथा नुमाइन्दगी का ख्वाब देखने वालों को तेजी से बदल रही प्रकृति और उसके कारणों के बारे में कितना पता है? सच तो यह है कि राजनीति की बिसात में हर कहीं अगर कोई गच्चा खाता है तो वह है वही प्रकृति है जिसकी बदौलत ही हम हैं, हमारा अस्तित्व है। ऐसे सवाल जायज हैं, उठने भी चाहिए। पर्यावरण-प्रदूषण की चिंता राजनीति में सबसे ऊपर होनी चाहिए, लेकिन सभी ने बेशर्म खामोशी ओढ़ी हुई है। चुनावी चकल्लस और नेताओं के लुभावने वादों के बीच न तो कोई धरती की चिंता करने वाला है और न कोई भू-गर्भ और आसमान को लेकर गंभीर दिख रहा है। शायद इनका चुनाव से सीधा वास्ता जो नहीं है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इतनी सी भूल या भुलाने की कोशिश जीवन पर धीरे-धीरे भारी पड़ती जा रही है।

हर साल बाढ़ की बढ़ती भयावहता, धरती की बढ़ती तपन, तेजी से कटते जंगल, रेत से चलते छलनी होती नदियां, गिट्टियों में तब्दील होते पहाड़, अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हमारी भविष्य की पीढ़ी के लिए बड़ा अभिशाप है। उससे भी दुखद यह कि सबको, सब कुछ पता है। फिर भी गंभीर कोई दिखता नहीं है। शायद यही कारण है कि देश के किसी भी राजनीतिक दल के अहम मुद्दों में ऐसे विषय शामिल ही नहीं हैं। कब तक नहीं रहेंगे यह भी नहीं पता। प्रदूषित होती नदियां जितनी चिंता का विषय हैं उससे बड़ी चिंता मानव निर्मित वो कारण हैं जो इसके मूल में हैं। केवल भारत के संदर्भ में बात करें तो भारत में अब ‘जल क्रांति’ की जरूरत है। पेयजल और सिंचाई के लिए घटते और सूखते जलस्रोतों की चिंता करनी होगी। वाकई लोगों को स्वस्फूर्त इस पर सोचना ही होगा। लोग जागरूक हों और कुछ करें तभी सकारात्मक नतीजे निकलेंगे वरना आयोग, बोर्ड, ट्रिब्यूनल बनते हैं, बनते रहेंगे। बहस, सुनवाई, फैसले होंगे, महज औपचारिकताओं की पूर्ति होगी और हर गांव, कस्बे, शहर, महानगर की आबादी की गंदगी का आसान और निःशुल्क वाहक बनीं नदियां दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होंगी, सूखेंगी और मरती रहेंगी।

तीन दशकों से जारी गंगा की सफाई हमेशा चर्चाओं में रही। सुप्रीम कोर्ट की पूर्व की तल्ख टिप्पणी जिसमें मौजूदा कार्ययोजनाओं से क्या गंगा 200 साल में भी साफ हो पाएगी, बेहद मायने रखती है। सच में कदम तो वो हों जिससे गंगा अपनी पुरानी भव्यता यानी प्रिस्टीन ग्लोरी हासिल कर सके। यह दशा, कहानी या सच्चाई उस गंगा की है जो मोक्षदायिनी है जो खुद अपने मोक्ष को तरस रही है। नर्मदा और भी श्रेष्ठ मानी गई है। पद्म पुराण में लिखा है ‘पुण्या कनखले गंगा, कुरुक्षेत्रे सरस्वती। ग्रामे वा यदि वारण्ये, पुण्या सर्वत्र नर्मदा ।।’ अर्थात गंगा को कनखल तीर्थ में विशेष पुण्यदायी माना जाता है, सरस्वती को कुरुक्षेत्र में, किन्तु नर्मदा चाहे कोई ग्राम हो या फिर जंगल सर्वत्र ही विशेष पुण्य देने वाली है। ऐसी पवित्र नर्मदा अपने उद्गम अमरकंटक के उद्गम कुंड से ही प्रदूषित होने लगती है। भारत के 27 राज्यों में 150 नदियां प्रदूषित हैं लेकिन इसकी चिंता किसे? थोड़ा पीछे चलना होगा। पांच साल पहले देश में धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ उसमें भी खास पहचान लिया बिलासपुर 23 मई 2017 को बेहद तेजी से 50 डिग्री सेल्सियस का तापमान छूकर चर्चाओं में आ गया था। वायुमंडल में घुली कार्बन डाइऑक्साइड, पराबैंगनी विकरण के सोखने और छोड़ने से हवा, धरती और पानी तीनों गर्म होते हैं। पिछली आधी सदी में कोयला-पेट्रोलियम के धुआं ने वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा खतरनाक हदों तक पहुंचा दिया। सामान्यतः सूर्य की किरणों से आने वाली ऊष्मा का एक हिस्सा वायुमंडल को जरूरी ऊर्जा देकर, अतिरिक्त विकिरण धरती की सतह से टकराकर वापस अंतरिक्ष को लौटता है। लेकिन यहां मौजूद ग्रीनहाउस गैसें, लौटने वाली अतिरिक्त ऊष्मा को भी सोख लेती हैं, जिससे धरती की सतह का तापमान बढ़ जाता है।

मार्च तो बीत गया लेकिन गर्मी के तेवर मार्च के दूसरे हफ्ते से ही असहनीय से हो गए। अगले तीन महीनों का हाल समझा जा सकता है। वर्षा जल संचय के लिए ठोस प्रबंधन और जनजागरुकता के लिए कुछ ही हफ्तों में बड़ी-बड़ी बातें सुनाई देंगी। बस आदेश-निर्देश की हर रोज फेहरिस्त निकलने लगेगी। लेकिन जब तक कुछ करने या पानी को बचाने पर अमलीजामा पहनाने के लिए दौड़ते कागजी घोड़े थमेंगे तब तक बारिश निकल चुकी होगी। यह हकीकत है। बस इन्हीं दिखावे या औपचारिकताओं ने पेयजल की किल्लत को और बढ़ाया है। नए हिमखंडों के लिए उचित वातावरण नहीं हैं। जो बचे हैं वो पर्यावरण असंतुलन से पिघल रहे हैं। पृथ्वी पर 150 लाख वर्ग किलोमीटर में करीब 9-10 प्रतिशत हिमखंड बचे हैं। ठंड के साथ गैस चैम्बर बनते महानगर, झील से सड़कों तक फैलता केमिकल झाग, सूखे तालाब, लापता होते पोखर, समतल होते सूखे कुएं उसके बावजूद अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन खासकर भारत में बड़ी चिंता का विषय है।

कभी सोचा है कि लगातार बीमार हो रही धरती को सेहतमंद बनाने और उसके स्वस्थ जीवन के लिए पहाड़, जंगल, नदी, तालाब, पोखर बचाना, उन्हें जिंदा रखना जरूरी है या क्रंक्रीट के जंगल, कल-कारखाने, पॉवर प्लांट की चिमनियों और धुआं के गुबार के बीच मानव निर्मित हिरोशिमा-नागासाकी से भी बड़ा सच बनाना जो चुपचाप, बिना आवाज दुनिया के मुंह बाए खड़ा है। दुनिया के विकसित और विकासशील देशों में इसको लेकर बस चिंता दिखती है लेकिन भारत में पर्यावरण और प्रदूषण को लेकर कितनी ईमानदार कोशिशें की जा रही हैं यह भी खुली आंखों दिखता है। काश राजनीतिक दलों के लिए जीवनदायिनी प्रकृति भी मुद्दा हो पाती और भारत के माथे को ऊंचा करने का दावा करने वाले तमाम राजनीतिक दल भी इसे समझ पाते। अब वह वक्त आ गया है जब एक कॉमन एजेंडा होना चाहिए जहां राजनीति के बराबर प्रकृति के हालातों पर भी बहस हो और परिणाम दिखें। 21 वीं सदी में यह सोचना बेमानी तो नहीं लगता? बात राजनीतिज्ञों के ईमान की है, पता नहीं गंभीर होंगे भी या नहीं। फिलहाल तो हर रोज हमारी धरती, हमारा आसमान प्रदूषण के नए-नए दंश को झेल रहा है। इससे आम और खास, इंसान और परिंदे, जानवर और कीड़े-मकोड़े, फसल और जंगल यानी सभी की सांस की डोर बंधी है। उसी की फिक्र हमारे नुमाइंदों को नहीं है? यब बेहद सोचनीय है। सभी की बेरुखी से डर बस इतना है कि कहीं आसमान का फेफड़ा पूरा न फट पाए और धरती का कलेजा सूख-सूख सिकुड़ न जाए। भला कौन और कब सोचेगा कि जब हम ही नहीं होंगे तब राजनीति कहाँ होगी?

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार/ मुकुंद

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