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स्थानांतरण नीति एक दुःस्वप्न 

सोनीपत  केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें हो ,वे जब भी कोई नीति लाती हैं तो समय के साथ उनमें सुधार किया जाता है ताकि एक परिष्कृत नीति सामने आ सके ,जिसका लोग एक लंबे समय तक लाभ उठा सके । हरियाणा सरकार की बहुचर्चित स्थानांतरण नीति के साथ लेकिन ऐसा नही हो पाया । संशोधन तो किये जाते हैं लेकिन इस नियत से नही किये जाते कि कर्मचारी उसका लाभ उठा सकें बल्कि उल्टा कर्मचारी इन संशोधनों से खुद को पीड़ित पाते हैं । अंततः होता ये है कि जब भी इस नीति को लागू करने की पहल की जाती है कर्मचारी माननीय उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाते हैं और फिर ढाक के वहीं तीन पात सब ठप्प हो जाता है । 

   कोई भी नीति पूर्ण परिष्कृत नही होती ,बदलती जरूरतों और हालात के अनुसार उसमें जरूरी बदलाव करने जरूरी होते हैं । स्थानांतरण नीति की अपनी कुछ खामियाँ हैं ,मसलन अगर गौर से देखें तो ऐसा लगता है कि पूरी नीति का झुकाव महिलाओं की तरफ कर दिया गया है । इस झुकाव से एक हद तक महिलाओं को लाभ होता है लेकिन उसके बाद न केवल महिलाओं को इसका नुकसान होता है बल्कि पुरुष प्रताड़ित महसूस करते हैं । उदाहरण के लिए महिलाओं को 10 अंक सिर्फ इस बात के दिये गए हैं कि वे महिलाएं हैं । कौन सा कानून लिंग के आधार पर भेद भाव की इजाजत देता है ? इसके बावजूद पुरुषों ने कभी इस बात पर आपत्ति दर्ज नही की । कहने की जरूरत नही है कि बिना जरूरत के राहत देना ये कहने के बराबर होता है कि “तुम कमजोर हो “। महिलाओं को इस तरह से कमजोरी के प्रतीक के रूप में दिखाना सामाजिक विकास के लिए बेहद घातक है । दूसरा, जोड़े के रूप में (जिसमें पति और पत्नी दोनों सरकारी कर्मचारी होते हैं ) 5 अंक दिए जाते हैं । कायदे अनुसार तो ये अंक महिलाओं और पुरुषों को जरूरत के अनुसार इस्तेमाल के लिए दिए जाने चाहिए लेकिन लेकिन स्थानांतरण नीति में केवल महिलाएं ही ये पाँच अंक प्राप्त कर सकती हैं । इसका नुकसान ये हुआ कि जिन महिलाओं के पास पहले से ही पर्याप्त अंक होते हैं उनको इनकी जरूरत नही होती बावजूद इसके उनके जीवन साथी इन अंकों का लाभ नही उठा पाते और कहीं दूर स्थानांतरित कर दिए जाते हैं । तीसरा, तलाकशुदा मामले में भी केवल महिलाएं ही 10 अंक प्राप्त कर सकती हैं । क्या तलाकशुदा पुरुष की जिम्मेदारियां कम होती हैं ? सही मायने में तो तलाकशुदा पुरुष की जिम्मेदारियां सबसे ज्यादा हो जाती हैं । इसके अलावा, विधवा होने पर महिलाओं को अंक प्राप्त होते हैं । ये अंक विदुर को भी दिए जाते हैं लेकिन इस शर्त के साथ कि उसका एक बच्चा नाबालिग या अविवाहित लड़की होना चाहिए । विधवा या विदुर दोनों की हालात संजीदा होते हैं इसलिए दोनों के साथ एक सा व्यवहार होना चाहिए । ऐसा नही है कि महिलाओं को राहत नही देनी चाहिए लेकिन आधिक्य से असंतुलन पैदा हो जाता है । इस झुकाव का एक परिणाम ये हुआ ‘ खासकर शिक्षा विभाग में ‘ कि शहर और उसके आसपास के स्कूलों में केवल महिलाएं ही रह गई । विद्यालय एक प्रशासनिक इकाई भी होती है । इस नीति से अध्यापन और प्रशासन के कार्यों का संतुलन बिगड़ गया है । 

        इस नीति में एक विशेष कमी ये है कि ये नीति माता पिता को ‘निर्भर सदस्य ‘ के रूप में नही देखती जबकि हरियाणा सरकार की दूसरी नीतियों में इस बात पर जोर दिया गया है । पत्नी/पति या अविवाहित बच्चे अगर किसी चिरकालिक या दीर्घकालिक बीमारी से पीड़ित हैं तो कर्मचारी को अंकों का लाभ मिलता है लेकिन अगर माँ बाप या भाई बहन (अविवाहित / तलाकशुदा )जो कर्मचारी पर ही निर्भर हो तो इसका लाभ कर्मचारी को नही दिया जाता । पति/ पत्नी आमतौर पर हमउम्र होते हैं जिनमें ज्यादातर स्वस्थ होते हैं । अविवाहित बच्चे भी आमतौर पर हष्ट पुष्ट होते हैं । जिनको वास्तव में देखभाल की जरूरत होती है वे तो बूढ़े माता पिता होते हैं । लेकिन ये नीति बीमार बूढ़े माता पिता को उनके हाल पर ही छोड़ देती है । 

              इसके अलावा हर विभाग का अपना एक स्वभाव होता है । मसलन शिक्षा विभाग को आप पुलिस विभाग की तरह नही समझ सकते । शिक्षा एक शांत माहौल और शांत चित्त से ही ली/दी जा सकती है जबकि पुलिस का काम उपद्रवियों से उलझने का होता है । इसलिए दोनों पर एक जैसी नीति लागू नही की जा सकती ।

इस नीति के रुकने का एक सबसे अहम कारण निदेशालयों में बैठे अफसरों का बिना तैयारी के इस नीति को लागू करने का प्रयास भी है । एम. आई. एस. पर जो डेटा अपडेट करवाया जाता है उसी के आधार पर ऑनलाइन स्थानांतरण होते हैं । लेकिन जो डेटा ही गलत या अधूरा होगा तो स्थानांतरण करने का कोई फायदा नही हो सकता उल्टा कर्मचारी और तकलीफ में आ जाते हैं । 

इस नीति में कुछ मौलिक बदलावों की जरूरत है जब तक ये बदलाव नही होंगे ये नीति कर्मचारियों के लिए एक दुःस्वप्न ही रहेगी । 

नरेंद्र सहरावत

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