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(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) जब बेटे के लिए नितिन बोस से भिड़ गए बलराज साहनी

विभाजन के बाद बलराज साहनी का परिवार रावलपिंडी से विस्थापित होकर बंबई आया था जिस कारण उनकी आर्थिक स्थिति काफी खराब थी। इस बीच 1949 में एक कम्युनिस्ट रैली में हिस्सा लेने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा था। इसी समय उनके बेटे परीक्षत साहनी को हलचल फिल्म में दिलीप साहब के बचपन का किरदार निभाने के लिए एक हजार रुपये का प्रस्ताव मिला । बलराज ने न चाहते हुए भी अनिच्छा से परीक्षत को फिल्म में काम करने की अनुमति दे दी। फिल्म बहुत अधिक नहीं चली, लेकिन परीक्षत को लगातार काम मिलने लगा । इसके बाद परीक्षत को एक और फिल्म दीदार में काम मिला जिसकी इजाजत भी उन्होंने अनिच्छा से ही दी। उनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था।

इस प्रसंग के बारे में बलराज ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने उसके सामने सही स्थिति रख दी और उससे कहा कि इस महीने उसे अपने आपको घर का मालिक समझना चाहिए, क्योंकि उसी की कमाई से घर चलने वाला था। परीक्षत ने अपने पिता की यादों पर लिखी पुस्तक में लिखा है कि हलचल और उसके बाद दीदार में काम करके उन्हे बड़ा मजा आया। उन दिनों अधिकतर फिल्मों की शूटिंग रात में हुआ करती थी क्योंकि उस समय वातावरण शांत रहता था और शूटिंग में व्यवधान भी कम होता था । उन्हें घर से शाम सात बजे ले जाया जाता था और अगले दिन सुबह वापस पहुंचाया जाता था। हर बार जब वे घर लौटते तो बलराज इसके लिए अपने आपको दोषी ठहराते और मुझसे क्षमा याचना करते थे। सही बात तो यह थी कि रात में शूटिंग करना मुझे बहुत अच्छा लगता था।

एक रात, परीक्षत जंगल में तूफान के दृश्य की शूटिंग कर रहे थे। तूफान का सीन प्रभावी बनाने के लिए सेट के एक कोने में बड़े-बड़े पंखे रखे गए थे। जब वो चालू हो जाते तो धूल और दूसरी चीजें इधर-उधर उड़ने लगती थीं। अधिकतर वरिष्ठ कलाकारों और कर्मचारियों को अपने आपको बचाने के लिए मास्क दिए गए थे। लेकिन परीक्षत को यह सब करने में बड़ा मजा आ रहा था। वह अपने को हीरो की तरह महसूस कर रहे थे । एक दृश्य में पेड़ की एक डाल परीक्षत पर गिर जाती है और वे जीवनभर के लिए अंधे हो जाते हैं (फिल्म में)। परीक्षत को यह काल्पनिक दुनिया अच्छी लग रही थी। वे सुबह जब घर पहुंचे तो रात के पूरे घटनाक्रम को बड़े चाव से बलराज को को सुना दिया। लेकिन इतना सुनते ही बलराज को तेज गुस्सा आ गया। गुस्से से पैर पटक कर चिल्लाते हुए उन्होंने कहा ‘ मेरे बेटे के साथ ऐसा करने की हिम्मत उन लोगों ने कैसे की? मेरा बेटा गम्भीर रूप से घायल हो सकता था।”

अगले दिन बलराज, परीक्षित के साथ शूटिंग में पहुंचे और उन्होंने हल्ला मचा दिया। उन्होंने फिल्म के निर्देशक नितिन बोस जो कि उन दिनों देश के प्रतिष्ठित निर्देशकों में से एक थे, से बहस करनी शुरू कर दी। बलराज ने उन पर ऐसा गुस्सा उतारा मानो वह कोई जूनियर तकनीशियन हों। उन्होंने लगभग चिल्लाते हुए कहा कि तूफान के दृश्य के लिए आप सभी चश्मे और मास्क पहने हुए थे, जबकि मेरा बेटा, जो सिर्फ ग्यारह साल का है, उसे धूल और दूसरी उड़ती हुई चीजों को बिना किसी सुरक्षा के झेलना पड़ा। यह क्रूरता और अन्याय है। नितिन बोस से इस तरह बात करते और उन पर ‘क्रूर’ होने का आरोप लगता देख कर यूनिट हैरान रह गई। परीक्षत , बलराज को इतने गुस्से में देखकर डर गए। नितिन दा भले आदमी थे । उन्होंने माफी मांगते हुए कहा कि वह एक और शॉट लेकर सीन को अभी उनके सामने ही पूरा कर देंगे और आगे से ऐसी कोई गलती न हो इसका भी ध्यान रखेंगे। तब कहीं जाकर बलराज शान्त हुए , लेकिन उनका गुस्सा कम नहीं हुआ । वह लगभग रो पड़े और परीक्षत को कसकर गले लगाकर बार-बार माफी मांगते रहे। इस घटना का असर यह हुआ कि इसके बाद परीक्षत का बाल कलाकार के रूप में करियर समाप्त हो गया । बलराज ने परीक्षत को बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया ताकि वह इस फिल्मी दुनिया के वातावरण से दूर रह सके।

चलते चलते

बलराज केवल अपने बेटे को लेकर ही इतना भावुक नहीं हुए थे बल्कि फिल्म दो बीघा जमीन में बच्चे के किरदार सूरज जिसे रतन नाम के लड़के ने निभाया था को थप्पड़ मारने के दृश्य में भी बहुत परेशान हुए थे। आजकल फिल्मों में वास्तविक थप्पड़ नही मारा जाता । केवल हाथ घुमाया जाता है और थप्पड़ की आवाज पोस्ट प्रोडक्शन के समय जोड़ दी जाती है। लेकिन उस दृश्य में बलराज को लड़के को तब तक मारते रहना था, जब तक कि उनकी पत्नी आकर उन्हें रोक न ले । किसी कारणवश इस सीन के तीन रीटेक हो गए और बलराज की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने रतन और उसके पिता, दोनों से माफी मांगी और तब हैरान रह गए जब लड़के के पिता ने हंसते हुए कहा कि रतन ने अब तक जितनी फिल्में की, लगभग हर फिल्म में उसे मार खानी पड़ती है। इस घटना के बारे में बलराज ने अपनी पुस्तक मेरी गैर जज्बाती डायरी में लिखा है कि थप्पड़ के इस दृश्य ने मेरे एक पुराने घाव को कुरेद दिया और मुझे उस थप्पड़ की याद दिला दी जो मैंने अपने बेटे परीक्षत को मारा था जब वह मुश्किल से पांच या छह साल का था। उसके चेहरे पर भी इसी दर्द और सदमे की अभिव्यक्ति थी, मानो पूछ रहा हो कि मैंने थप्पड़ खाने जैसा क्या गुनाह कर दिया?

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