पुलिस अधिकारी के साथ-साथ अध्यापिका भी हैं रूपक
भिवानी
कहते हैं एक महिला दो घरों को रोशन करती है, लेकिन आज यह कहावत महिला एएसआई ने गलत साबित कर दी है। महिला एएसआई यूं तो पेशी पर कैदियों को लेकर जाने की ड्यूटी करती हैं, लेकिन जब ड्यूटी से थोड़ा बहुत समय मिलता है तो स्वयं चल पड़ती हैं बच्चोंं के भविष्य को बनाने के लिए। उसके लिए उन्होंने ऐसी-ऐसी झुग्गियों को ढूंढ रखा है, जहां बच्चे पढ़ने के लिए नहीं जाते हैं। ऐसे बच्चों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने का कार्य करती है और फिर उन्हें दूसरे स्कूलों में डाल देती हैं ताकि वे बच्चे पढ़ लिख कर अपना भविष्य बना लें।
ये कोई फिल्मी कहानी नहीं है बल्कि हकीकत है। हकीकत भी ऐसी की, जो भी सुनेगा वह दांतो तले उंगलियां दबा लेगा। कहानी है महिला एएसआई रूपक की। रूपक यूं तो हरियाणा पुलिस में है। रूपक मूलरूप से चरखी दादरी जिले की निवासी है। रूपक की ड्यूटी एक बार ऑपरेशन मुस्कान में लगाई गई थी। इस ऑपरेशन में ऐसे बच्चों को ढूंढना है, जो अपने माता पिता से बिछड़ गए थे। रूपक ने भी जीतोड़ मेहनत की और कई बच्चों को उनके माता-पिता से मिलवा दिया। उसके बाद रूपक को लगा कि क्यों न ऐसे बच्चों को पढ़ाया जाए जो बच्चे झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं। भीख मांगते हैं और दूसरों के घरों में काम करते हैं। रूपक ने पांच वर्ष पूर्व इस अभियान को पंख लगाने शुरू कर दिए। रूपक ड्यूटी करती के बाद के समय में ऐसे बच्चों की झुग्गियों में जाकर उन्हें पढ़ाने का काम शुरू कर देती हैं। रूपक ने कई बच्चों को पढ़ाया और कई बच्चों का दाखिला भी सरकारी स्कूलों में करवाया।
रूपक ने जब इस अभियान को शुरू किया तो उसे दिक्कतें आतीं कई बार वे समय पर नहीं पहुंच पाती थी, क्योंकि ड्यूटी पुलिस की थी कभी भी बुलावा आ जाता था। ऐसे में रूपक ने ऐसे बच्चों को अपने साथ जोड़ा जो कॉलेज में पढ़ते हैं और श्रम दान दे सकते हैं। ऐसे बच्चों की वे आने जाने का किराया देकर मदद करती हैं। स्वयं भी वह आती और बच्चों की मदद करती हैं। उन्होंने सरकार से भी मांग की है कि गुरुकुल की व्यवस्था ऐसे बच्चों के लिए करें ताकि बच्चों का भविष्य बन सके। रूपक की ड्यूटी यूं तो पेशी पर मुलजिम पेश करने की है। रूपक के साथ इस अभियान कई विद्यार्थी भी लगे हैं, जिन्हें रूपक ने अपने साथ जोड़ा है। रूपक के साथ कीर्ति है जो बीएससी में पढ़ रही है, लेकिन साथ में झोपड़ी में बच्चो को भी पढ़ाती है। वे भी इस अभियान में इनके साथ जुड़ कर खुश हैं।
वहां आने वाले बच्चों के माता पिता भी चाहते हैं कि उनके बच्चें खूब पढ़े लिखे लेकिन उनकी गरीबी उनके आड़े आ जाती है। घर चलाने के लिए वे बच्चों को अपने साथ ले जाती है ताकि कोई उन्हें भीख दे दे या फिर कोई कोई काम दे दे। ताज्जुब तो तब हुआ जब बच्चों को देखा ऐसे ऐसे बच्चे हैं, जिन्होंने सपने तो संजोए हैं कि वे फौजी बने कोई डॉक्टर बने लेकिन सपने सत्य कैसे हों जिन बच्चों के हाथों में किताबें होनी चाहिए उनके हाथों में भीख का कटोरा है। यही नहीं बचपन अभी जिया भी नहीं ये भी नहीं मालूम कि शादी क्या होती है, लेकिन उनकी सगाई हो चुकी है। हालांकि शादी की उम्र बढ़ने के पड़ाव पर होगी लेकिन जिम्मेदारी का बोझ तब आ गया जब जिम्मेदारी के बारे में जानकारी भी नहीं है।