राष्ट्रीय

 उत्तराखंड : पुरोला के लाल धान से महकेगी गंगा घाटी, कृषि विभाग बीज देगा सब्सिडी

-लाल धान को जीआई टैग मिलता तो यह उत्पाद एक ब्रांड बन जाता

उत्तरकाशी, 10 जनवरी उत्तराखंड के उत्तरकाशी इलाके के रवांई के पुरोला क्षेत्र का मशहूर लाल धान (चरदान) से अब गंगा घाटी महकेगी। कहने का मतलब अब यह लाल धान की फसल यहां भी उगाई जाएगी। कृषि विभाग ने इसके लिए योजना तैयार कर ली है।

मुख्य कृषि अधिकारी जेपी तिवारी ने बताया कि कृषि विभाग गंगा घाटी के काश्तकारों को पुरोला के लाल धान के बीज को सब्सिडी पर वितरित करेगा और गंगा घाटी उत्तरकाशी के 500 हेक्टेयर भूमि पर लाल धान की खेती कराएगी।

मुख्य कृषि अधिकारी ने बताया कि लाल धान को जीआई टैग के लिए पूर्व में कृषि सचिव को पत्र भेजा गया है। उनसे किसी संस्था को चुनने का आग्रह किया है जो जीआई टैग के लिए रिपोर्ट तैयार कर सके लेकिन अभी तक जियोग्राफिकल इंडिकेशन ने इस पर अंतिम फैसला नहीं लिया है।

रवांई घाटी के पुरोला के करीब 2000 हेक्टेयर क्षेत्र में लाल धान की खेती होती है। यदि इसे जीआई टैग मिल जाता है तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह एक ब्रांड बन जाएगा। पौष्टिकता से भरपूर यह लाल धान आयरन-प्रोटीन और एंटी ऑक्सीडेंट से पूर्ण होता है।

इस धान में होता है आयरन, प्रोटीन, पोटशियम और फाइबर-

पुरोला के प्रचुर मात्रा में चरदान की खेती करने वाले नेत्री के केंद्र सिंह और बलवंत सिंह ने बताया कि यह अनाज सदियों से हमारे क्षेत्र में उगाया जा रहा है। जैविक तरीके से उगाए जाने वाले इस धान में आयरन, प्रोटीन, पोटेशियम, फाइबर और एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में होता है। यह दिल, हड्डी, मोटापे और अस्थमा आदि बीमारियों से बचाता है। इसका मुख्य कारण बीज का पुराना होना और पहाड़ों में तापमान का बढ़ना है। हिमाचल के खरीदार लाल चावल को 90 -120 रुपये प्रति किलो के हिसाब से खरीदते हैं।

उल्लेखनीय है पुरोला के लाल धान की की डिमांड की डिमांड हिमाचल प्रदेश सहित देश के विभिन्न राज्यों में है। कृषि विभाग चाहता है कि गंगा घाटी के लोग भी इसका उत्पादन शुरू करें जिससे कि काश्तकारों की आमदनी और अधिक वृद्धि हो । विभाग ने इसके नई पहचान देने की तैयारी की थी। कृषि विभाग ने जीआई (जियोग्राफिक्ल इंडिकेशन) टैग दिलाने के लिए कृषि सचिव को पत्र भेजा था। यदि क्षेत्र के लाल धान को जीआई टैग मिल जाता है तो यह उत्पाद एक ब्रांड बन जाता। इससे इसके मूल्य और उत्पादन में बढ़ोतरी होती और इसे उगाने वाले काश्तकारों को भी अधिक लाभ होता है।

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