श्रीलंका संकट में क्यों फंसा, भारत के लिए भी सबक

विक्रम उपाध्याय

श्रीलंका में जो हो रहा है, भयावह है। केवल वहां के नागरिकों के लिए यह महा विपत्ति काल नहीं है, बल्कि हमारे लिए भी एक सबक है। किसी देश में जब घनघोर परिवारवाद हो, सत्ता में आने या बने रहने के लिए अर्थव्यवस्था के नियमों को ताक पर रखकर सिर्फ लोकलुभावन नीतियां बनें, जब राष्ट्रीय सुरक्षा को ताक पर रखकर सत्ता में बैठे लोग अपने हितों की चिंता करें और जो शासक दुश्मन और दोस्त में फर्क ना समझ पाए तो वह श्रीलंका हो जाता है।

भारत के दक्षिणी छोर पर बसे द्वीप श्रीलंका के सामने ईंधन, भोजन, दवा, घर की अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं का संकट है। पेट्रोल-डीजल मिल नहीं रहे। पेट्रोल पंपों पर सेना तैनात कर दी गई है। 13 घंटे की लंबी बिजली कटौती हो रही है, सार्वजनिक परिवहन समय से चल नहीं रहे हैं। त्यागपत्र दे चुके, प्रधानमंत्री अपनी जान बचाने के लिए श्रीलंका नेवी के बंकर में छुपे हुए हैं। पूरे श्रीलंका में व्यापक सामाजिक अशांति फैली हुई है। श्रीलंका की समस्या बहुत गहरी है और इसका हल फिलहाल नजर नहीं आ रहा है।

आखिर श्रीलंका इस बुरी स्थिति में पहुंचा कैसे। यह संकट रातों रात वहीं नहीं उत्पन्न हुआ। पिछले तीन साल से श्रीलंका आर्थिक संकट की ओर लगातार बढ़ता आ रहा था, लेकिन समय पर स्थिति संभालने के बजाय मौजूदा शासकों ने इसे गटर में जाने दिया। पर्यटन उद्योग पर मुख्य रूप से आश्रित श्रीलंका को यह मालूम था कि कोविड 19 के बाद दुनिया बंद कर दी गई है, इसलिए जरूरी था कि वह अपनी आय के अन्य स्रोतों पर काम करे, लेकिन श्रीलंका ने काम के बजाय कर्ज का रास्ता, वह भी मुख्य रूप से चीन से कर्ज के रास्ते को चुना। श्रीलंका के आय के स्रोत खत्म हो रहे थे और कर्जों पर ब्याज एवं आयात के खर्च बढ़ रहे थे। देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता गया और जरूरी सामान के आयात के लिए भी विदेशी मुद्रा मिलना बंद होने लगा।

श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार वर्ष 2019 के अंत में 7.9 अरब डाॅलर था जो मार्च 2022 में घटकर 1.9 अरब डाॅलर रह गया। केवल दो ढाई वर्षों में ही लगभग 70% विदेशी मुद्रा भंडार घट गया। जबकि श्रीलंका की देनदारी बहुत ज्यादा है। इसी साल यानी 2022 में ही श्रीलंका को विदेशी कर्ज के मद में 4 अरब डाॅलर लौटाने हैं। एक अरब डाॅलर उसे सोवरिन बांड के पुनर्भुगतान के रूप में लौटाना है। अंग्रेजी एजेंसी ब्लूमबर्ग के अनुसार इस साल श्रीलंका की कुल विदेशी मुद्रा में देनदारी 8.4 अरब डाॅलर की है। जाहिर है श्रीलंका इसमें विफल रहेगा और आने वाले महीनों में स्थिति और खराब होने की आशंका रहेगी। समाज में और अराजकता फैल सकती है जब देश को आवश्यक वस्तुओं का और अधिक संकट का सामना करना पड़ेगा।

ये तो ताजा स्थिति है, लेकिन इस स्थिति तक श्रीलंका पहुंचा कैसे?

विशेषज्ञ बताते हैं कि इसके लिए सीधे-सीधे राजपक्षे परिवार जिम्मेदार है। श्रीलंका में पिछला चुनाव नवंबर 2019 में हुआ था। उस चुनाव में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे चुनाव जीत गए। जीतते ही उन्होंने पहले से खस्ताहाल में चल रहे श्रीलंका को आर्थिक संकट से निकालने के बजाय राजस्व हानि वाले फैसले लागू कर दिए। जनता को खुश करने के नाम पर उन्होंने पहले से लागू राष्ट्र-निर्माण कर को पूरी तरह समाप्त कर दिया। वैट दर को भी 15 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया। विदहोल्डिंग टैक्स, कैपिटल गेन टैक्स और बैंक डेबिट टैक्स को हटा दिया गया।

2021 में श्रीलंका का कर्ज जीडीपी के मुकाबले 101 प्रतिशत था और बजट घाटा 11.10 प्रतिशत का था। नतीजा कर्ज का बोझ हर रोज बढ़ता गया। अपने निर्यात को बढ़ावा देने के बजाय, अपने भंडार को भरने के लिए श्रीलंका सरकार ने विदेशी धन उधार लिया। नतीजा विदेशी कर्ज तो बढ़ता गया, स्थानीय उद्योग भी नजरंदाज होते चले गए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार श्रीलंका का विदेशी कर्ज 25 अरब डाॅलर से भी अधिक है।

किसी भी देश का आर्थिक स्तंभ वहां की खेती होती है। यदि कृषि क्षेत्र अपना प्रदर्शन सुधार लेता है, तो खाद्यान्न समस्या काफी हद तक काबू में रहती है। श्रीलंका में सबसे ज्यादा चाय की खेती होती है, लेकिन वर्तमान सरकार की एक नीति ने चाय की खेती को एकदम से बर्बादी की कगार पर पहुंचा दिया। अचानक अप्रैल 2021 में श्रीलंका की सरकार ने राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा के साथ अनावश्यक प्रयोग करते हुए श्रीलंका को पूर्ण रूप से जैविक खेती करने वाला दुनिया का पहला देश घोषित कर दिया और रासायनिक उर्वरकों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। यह एक विनाशकारी कदम साबित हुआ। खेती बुरी तरह प्रभावित हुई और देश में खाद्य मुद्रास्फीति काफी बढ़ गई। हालात इतने खराब हो गए कि राजपक्षे सरकार को आर्थिक आपातकाल लगाना पड़ा। बाद में प्रतिबंध वापस लिया गया और भारत एवं चीन से रासायनिक खादों की तत्काल खेप भेजी गई। तब तक श्रीलंका के चाय और रबर के निर्यात को काफी नुकसान पहुंच चुका था।

राजपक्षे सरकार ने केवल घरेलू स्तर पर ही नहीं, विदेशी मामलों में भी काफी कमजोर नीतियों को लागू किया। खासकर चीन के साथ दोस्ती बढ़ाने में भारत के हितों के नजरंदाज किया गया। चीन ने श्रीलंका को कर्ज के जाल में फंसा लिया और 2015 में कर्ज ना चुकाने के एवज में श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह चीन को 99 वर्षों के लिए लीज पर देना पड़ा। हंबनटोटा बंदरगाह के साथ साथ राजपक्षे हवाई अड्डे के निर्माण के लिए चीन से 2 बिलियन डॉलर से अधिक का कर्ज लिया गया। अब वही राजपक्षे हवाई अड्डा खाली पड़ा है।

दूसरी तरफ भारत लगातार श्रीलंका को मानवीय और पड़ोसी धर्म का पालन करते हुए सहायता पहुंचा रहा है। भारत ने एफडीआई के रूप में श्रीलंका को 2005 से 2019 तक लगभग 1.7 बिलियन डॉलर का निवेश किया। चीन और ब्रिटेन के बाद, भारत 2019 में भी श्रीलंका के लिए एफडीआई का सबसे बड़ा स्रोत रहा। कई बड़ी भारतीय कंपनियों ने श्रीलंका में निवेश किया है। भारत कोलंबो बंदरगाह को भी काफी कमाई करवाता है। वैश्विक व्यापार में कोलंबो भारत के लिए एक ट्रांस-शिपमेंट हब है। यहां से शिपमेंट कार्गो का साठ प्रतिशत बंदरगाह भारत द्वारा नियंत्रित किया जाता है।

और अंत में श्रीलंका के वर्तमान हालात से यह सबक सीखा जा सकता है कि जब सत्ता पर परिवार वाद हावी हो जाता है तो क्या दुष्परिणाम मिलता है। चुनाव जीतने के बाद गोटाबाया राजपक्षे खुद राष्ट्रपति बने तो अपने भाई महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया। तुलसी राजपक्षे वित्त मंत्री बना दिए गए तो महिंदा राजपक्षे के पुत्र नमल को उनके उत्तराधिकारी के रूप खेल मंत्री बना दिया गया। महिंदा राजपक्षे के सीए रहे अजित निवार्ड को श्रीलंका के सेंट्रल बैंक का गवर्नर बना दिया गया। जाहिर है कि भाई भतीजावाद के इस शासन का हश्र यही होना था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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