राष्ट्रीय

विभाजित समाज में पुलिस-सहयोग और न्याय एक चुनौती : मीरा बोरवंकर

नई दिल्ली, 21 जुलाई । पुणे की पूर्व कमिश्नर डॉ. मीरान बोरवंकर ने समाज में पुलिस के बारे में नकारात्मक दृष्टिकोण पर चिंता व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि पुलिस में मजहबी विभाजन के उदाहरण मुंबई में पहली बार 1993-94 के दंगों के दौरान दिखाई दिए। डॉ. बोरवंकर, राजेन्द्र पुनेठा स्मृति न्यास और यूरोपियन यूनियन के ‘ज़ा मौनिए प्रोग्राम’ के तहत “विभाजित समाज में पुलिस और न्याय” विषय पर आयोजित संगोष्ठी को सम्बोधित कर रही थीं। संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए मुंबई के पुलिस आयुक्त, पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद सत्यपाल सिंह ने भी मुसीबत के समय पुलिस को याद करने और बाद में भुला देने को गलत ठहराया।

दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित संगोष्ठी को इंडिया अहेड न्यूज़ के मैनेजिंग एडीटर मनीष छिब्बर, और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ शीतल शर्मा ने भी संबोधित किया।

पुणे की पूर्व कमिश्नर डॉ. मीरान बोरवंकर ने पुणे में 1993-94 के दौरान अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने कहा कि तब पुलिस के लिए प्रयोग किए शब्दों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने पुलिस में लैंगिक भेदभाव के कराण महिलाओं को साइडलाइन तैनाती की सच्चाई रखी। हालांकि महाराष्ट्र में उन्होंने पाया कि आदिवासी एवं दलित समाज की महिला पुलिसकर्मी मुख्य धारा की तैनाती पाना चाहती हैं। डॉ. बोरनकर ने कहा कि पुलिस प्रशिक्षण में शारीरिक पहलुओं पर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है जबकि संविधान एवं रूल ऑफ लॉ यानी कानून के शासन की ट्रेनिंग की कमी है। मीरान बोरवंकर ने कहा कि संवेदनशीलता की कमी के कारण पुलिसकर्मी अक्खड़, घमंडी और जरूरत से ज्यादा कठोर हो गये हैं। उन्होंने कहा कि स्वैच्छिक संगठनों, शिक्षाविदों, न्यायविदों को शामिल करके पुलिस को संवेदनशील बनाने का लगातार प्रशिक्षण देने की जरूरत है। उन्होंने राजनेताओं और ऊंचे पदों पर नियुक्त अधिकारियों द्वारा पुलिसबल का प्रयोग अपने रसूख के प्रदर्शन के लिए किये जाने की आलोचना की और कहा कि यह पुलिस का दुरुपयोग है। हमें एक सतर्क, जागरूक, सहयोगी पुलिस की जरूरत है।

मुंबई के पुलिस आयुक्त रह चुके पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद सत्यपाल सिंह ने कहा कि मुसीबत आती है तो भगवान और पुलिस याद आती है। मुसीबत जाते ही लोग भगवान को भूल जाते हैं और पुलिस को नजर अंदाज कर देते हैं। उन्होंने कहा कि पुलिस ही देश और लोकतंत्र की सुरक्षा का मुख्य औजार है। अगर जजों के पास पुलिस ना हो तो वे फैसले नहीं सुना सकते हैं। देश में कहीं भी त्योहार हो, मेला हो, या परीक्षा, यात्रा, जनसभा हो, पहली जरूरत पुलिस की होती है। लेकिन पुलिस में संख्या बल कम है, काम का बोझ अत्यधिक है और एक पुलिसकर्मी को औसतन 12 से 15 घंटे तक काम करना पड़ता है।

डॉ. सत्यपाल सिंह ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार प्रति एक लाख आबादी पर पुलिस बल 222 की संख्या में होना चाहिए। भारत में यह 171 मान्य है लेकिन मौजूदा स्थिति में ये संख्या 137 ही है।

सिंह ने हर बार पुलिस को दागदार बनाने की प्रवृत्ति की भी कड़ी आलोचना की और कहा कि सरकार के अनेक विभाग पुलिस की तुलना में बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार में लिप्त हैं लेकिन समाज हो या अदालत, सबको पुलिस को लेकर पूर्वाग्रह रहता है। पुलिस को बुरा भला कहना फैशन बन गया है।

इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार मनीष छिब्बर ने कहा कि भारत में सामान्य रूप में लोग मानते हैं कि देश की पुलिस भ्रष्ट है। रोजाना पुलिसकर्मियों और अधिकारियों का सामना आलोचना से होता है। पुलिस से अपेक्षा बहुत ज्यादा है और आउटपुट बहुत कम है। छिब्बर ने कहा कि दरअसल ‘रूल ऑफ लॉ’ के गायब होने के कारण ही समाज में विभाजन या ध्रुवीकरण हो रहा है। ऐसा पहली बार दिखाई दे रहा है कि न्यायाधीशों की आलोचना इस स्तर पर पहुंच गई है कि लोग सवाल पूछने की जगह पत्थर फेंक रहे हैं। उन्होंने पुलिस व्यवस्था में अत्यधिक राजनीतिक दखलंदाजी का मुद्दा उठाया और कहा कि पंजाब में एक साल में पांच महानिदेशक आ गए। जबकि केंद्रीय प्रशासनिक पंचाट की व्यवस्था है कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और पुलिस महानिदेशक को दो साल से पहले नहीं बदलना चाहिए। छिब्बर ने कहा कि विधायकों को थानेदारों और हवलदारों के तबादले और तैनाती से दूर रखने की जरूरत है।

जवाहर लाल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर डॉ. शीतल शर्मा ने कहा कि समाज में संघर्ष अपरिहार्य है। फिर संघर्ष होगा तो पुलिस की भी जरूरत होती है। पुलिस की स्थिति लोकतंत्र की सेहत का सूचकांक होता है। संघर्ष को नियंत्रित करने और शांति व्यवस्था बनाए रखने की भूमिका को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि खाकी में खड़े पुलिसकर्मी भारत के निर्माण में सहयोग कर रहे हैं। ऐसे में जब पुलिस की जरूरतें पूरी नहीं होंगी तो पुलिस आपकी अपेक्षा कैसे पूरी कर सकती है।

उल्लेखनीय है कि कार्यक्रम में कई वरिष्ठ पत्रकार, शिक्षाविद, पूर्व पुलिस अधिकारी और अन्य गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।

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