सोनीपत: विपरित परिस्थितियों में शरीर को साधना ही तपस्या है: श्रीमहंत राजेश
सोनीपत, 08 जून । सिद्धपीठ सतकुंभा तीर्थ धाम के पीठाधीश्वर राजेश स्वरुप महाराज ने कहा है कि सनातन संस्कृति में त्याग और तपस्या महत्वपूर्ण है। ज्येष्ठ के माह में दूसरे के हितों के लिए साधना करना परोपकार है। जबकि विपरित परिस्थितियों में शरीर को साधना तपष्या है। पांडूपिड़ारा जींद से आए श्रीमहंत महाराज श्री बुधवार को सतकुंभा तीर्थ पर मंगलकारी प्रवचनों की रसधारा प्रवाहित कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि जब संतवर्ती हो जाती है तो व्यक्ति यह समझता है कि जो शरीर हमें मिला है हम इस शरीर से परोपकार कर पाएं, शरीर को साधते हुए विपरीत परिस्थितियों में शरीर को अपने अनुकूल बनाना यह हमारी साधना है जेष्ठ महीने में को सोर महीना बोलते हैं। इसका अर्थ है कि भगवान सूर्य की जो उष्ण शक्ति है वह जेष्ठ माह में ज्यादा रहती है। गर्मी का प्रकोप कह सकते हैं आप उसके लिए जेष्ठ माह है। साधु संतों ने इसे अपनी तपस्या का मार्ग बना दिया उतनी ही अग्नि में हम खुद को तपाए विपरीत परिस्थितियों में हम अपने आप को साथ दें वही साधना है अब इस के बाद वर्षा ऋतु आएगी आषाढ़ माह कहलाता है। पोष ठंड के महीने में ठंडे जल से तपस्या करते हैंं और इसी तरह गर्मी में धुने लगा कर के तपस्या करते हैं।
महाराज् श्री ने कहा कि दान के लिए हर महीने का महत्व है जैसे मकर सक्रांति है उसमें खिचड़ी दान करने का महत्व है और जेष्ठ में सबके घर में नया अन्न आया है। गेहूं आई, सरसों आई है उसमें से कुछ अंश जो है दान करना, एक अनुसंधान भी चल रही है कि जब रुपया नहीं था तब घर कैसे चल रहे थे। यह समझ में आया है कि जो हल है, हल के ऊपर अनेकों तरह की सेवावर्ती लगाई हुई थी।