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मातृभाषा में शिक्षा और औपनिवेशिकता की चुनौती

गिरीश्वर मिश्र

भारत की भाषिक विविधता का अद्भुत विस्तार और उसका सहज स्वीकार प्राचीन काल से इस देश में सामाजिक बर्ताव का अहम हिस्सा रहा है। अथर्ववेद में यह सन्दर्भ मिलता है कि यह धरती अनेक भाषाओं को बोलने वालों और धर्मों का अनुगमन करने वालों का भरण-पोषण करती है। भाषाओं की विविधता के सत्य से परिचय के साथ ही इस बात का भी प्रमाण मिलता है कि एक ही समुदाय के सदस्यों द्वारा भी भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में अलग-अलग भाषाओं का उपयोग किया जाता रहा है। आज भी घर, बाहर, कार्यालय और बाजार में लोग अलग भाषाओं का प्रयोग करते मिलते हैं।

निश्चय ही सामाजिक, व्यावसायिक और भौगोलिक-पारिस्थितिक विविधताओं के चलते भाषिक विविधता स्वाभाविक रही है और भिन्न भाषाओं का मनो-स्पर्श इस अर्थ में आह्लादकारी होता है कि उससे हमारे लिए अनुभवों की एक नई दुनिया आकार लेती है। भाषा के साथ हमारी रिश्तेदारी का सौंदर्य इस बात में भी निहित होता है कि उसमें हमेशा नए के सृजन की गुंजाइश बनी रहती है। भाषाओं के बीच की आवाजाही एक सहज स्वीकार्य व्यवहार था। विभिन्न भाषाओं का सह अस्तित्व था और उनके लिए आपस में आदरभाव भी रहता था।

रोचक बात यह भी है कि अनुवाद को कोई स्वतंत्र शास्त्र प्राचीन भारत में विकसित होता नहीं दिखता और प्राय: अनुवाद की जगह पुनर्रचना ही मिलती है। उदाहरण के लिए आज अनेक भाषाओं में लगभग तीन सौ रामायण उपलब्ध हैं और कोई किसी का अनुवाद न होकर नई रचना के रूप में उपलब्ध और सभी ‘मूल’ ग्रन्थ के रूप में आदृत हैं। और तो और अगस्त्यसंहिता नामक ग्रन्थ में रामायण को वेद का अवतार कहा गया है और बाद में अवधी में तुलसीकृत रामचरितमानस जिस तरह लोक में आदृत और पूजित हुआ, वह उसका अगला अवतरण ही सिद्ध हुआ।

ज्ञानेश्वरी में श्रीकृष्ण से अर्जुन कहते हैं ‘आपकी उलझी भाषा मुझे समझ में नहीं आ रही। आप मुझे सरल मराठी में समझाइए (आइकें देवा। हा भावार्थ आता न बोलावा। मज विवेकु सांगावा। मर्हाटा जी म्हणोनि)। ज्ञानेश्वरी में ही एक जगह संत ज्ञानेश्वर कह रहे हैं कि भगवद्गीता रूपी तीर्थ में अवगाहन करना कठिन हो गया था क्योंकि घाट संस्कृत का था, इसलिए मेरे गुरु निवृत्तिनाथ ने मेरे माध्यम से उसमें थोड़ा परिवर्तन लाकर मराठी भाषा की पैड़ियों का घाट बनवा दिया” (तीरे संस्कृताची गहने। तोडोनि मर्हाटिया शब्दसोपाने। रचिली धर्मनिधाने। निवृत्तीदेवे)।

बात बड़े पते की है। यह ध्यान रखना चाहिए कि नदी में स्नान करने की सुविधा के लिए पैड़ियाँ बनवानी हों तो किनारे की ज़मीन को तोड़ा नहीं जाता बल्कि उसी का आश्रय लेकर, उसमें कुछ सामग्री और जोड़कर उसका निर्माण किया जाता है। इस तरह संस्कृत से लोकभाषा में हुए रूपान्तर भी उसके विपरीत या उसके विरोध में जाकर नहीं हुए थे बल्कि उसका आधार लेकर उसे सहज और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाने के उद्देश्य किये गये थे।

ये प्रसंग यही दर्शाते हैं कि भाषाओं में अंतरावलंबन भी होता है और भाषा की विविधता समस्या न रहकर समृद्धि का अवसर भी देती है। भारत में भाषा की बहुलता समाज की एक स्वाभाविक स्थिति थी और बहुभाषिकता व्यवहार में थी। भारत की बहुत सारी भाषाओं का संस्कृत के साथ शब्द-भंडार और भाषा-संरचना के स्तरों पर निकटता अंतरभाषिक संवाद और संचार का मार्ग प्रशस्त करती थी। कहना न होगा कि भाषाओं के लिए औदार्य की भावना और उनके प्रति सहिष्णुता हमारे मानसिक जगत का विस्तार करने के साथ व्यावहारिक स्तर पर सामाजिक सद्भाव का मार्ग भी प्रशस्त करती है। भाषाओं को एक-दूसरे के आमने-सामने खडा कर अस्मिता की राजनीति के लिए भुनाना क्षोभकारी है। हमें उन्हें अवसर में तब्दील करने की कोशिश करनी चाहिए।

भाषाओं पर विचार करते हुए हमें यह भी याद रखना होगा कि वाचिक आधार पर भारतीय संस्कृति की निर्मिति की परम्परा बड़ी पुरानी है। वह वेद-काल से हज़ारों वर्षों से सतत चलता चली आ रही है। इतिहास, पुराण और अनेक शास्त्र ग्रंथ बहुत दिनों तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी वाचिक रूप में एक से दूसरे को मिलते रहे और सुरक्षित बने रहे। आज भी कथा सुनने का सुख और स्वाद पाने के लिए गावों ही नहीं शहरों में भी आम जनता लालायित रहती है और धर्म नगरियों से भिन्न जगहों पर भी राम-कथा, भागवत-कथा और कृष्ण-कथा सुनाने वाले कथावाचकों की आम जनता में बड़ी माँग बनी रहती है। सत्संग में कथा-श्रवण का विशेष स्थान होता है और रामचरितमानस, भगवद्गीता, दुर्गा सप्तशती तथा अनेक देवी-देवताओं के स्तोत्रों और मंत्रों आदि को लोग दैनिक पूजा-पाठ और आराधना उपासना में भी शामिल किए हुए हैं और इन सबके साथ आत्मिक शांति पाने की चेष्टा करते हैं। इस तरह वाचिकता का समाज की मानसिकता की बुनावट के साथ बड़ा गहरा नाता है और छापे के अक्षर न लिख-पढ़ कर भी सुन-सुन कर गावों में बड़ी संख्या में लोग निरक्षर होते हुए भी शिक्षित रहते थे।

यह एक सार्वभौमिक तथ्य है कि संस्कृति, भाषा और समाज एक-दूसरे के साथ बड़ी गहनता से जुड़े होते हैं। संवाद का प्रमुख आधार होने के कारण किसी समाज या समुदाय की पहचान को रचने-गढ़ने में उसकी भाषा की केंद्रीय भूमिका होती है। इस ढंग से सोचें तो स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक न्याय, समता और अवसरों की उपलब्धता सुनिश्चित करना अंग्रेज़ी से सम्भव नहीं है। सन 1837 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत की अदालत और शासन के काम के लिए फ़ारसी की जगह अंग्रेज़ी को लागू किया था। इसकी बेड़ी कुछ इस तरह जकड़ी कि अंग्रेज़ी मानसिक ग़ुलामी की द्योतक है और उसी के साथ सांस्कृतिक दुर्बलताएँ भी शामिल हुई हैं। इसके चलते उपभोक्तावाद को शह मिली और प्रकृति और पर्यावरण से दूरी बढ़ती गई है जिसका ख़ामियाज़ा सभी भुगत रहे हैं। अंग्रेज़ी के प्रचलन से ग़ैर बराबरी, भेद-भाव और जीवन जीने में असुविधा बढ़ी है।

भारत में भाषा के सत्य से मुंह मोड़ कर अंग्रेजी को जिस तरह एक अकाट्य विकल्प की तरह बैठा दिया गया उसने विचार और कार्य को अंग्रेजी के माध्यम (केयर आफ !) पर आश्रित बना दिया। द्वारपाल की तरह अंग्रेजी अन्दर (विहित/स्वीकृत) और बाहर (अविहित/अस्वीकृत) की श्रेणियों में कार्य, ज्ञान, व्यवहार और अस्तित्व को बांटने लगी। वास्तव में अंग्रेज़ी एक ऐसी सीढ़ी बन गई जिस पर चढ़कर ही किसी को व्यवसाय और कमाई आदि विभिन्न जीवन व्यापारों की राह पर चलना संभव हो पाता है। अंग्रेजी औपनिवेशिकता का माध्यम भी रही और उन्नति का पर्याय भी बन गई। यह सब इस तरह चलता रहा कि औपनिवेशिकता बने रहते हुए भी बहुत हद तक अप्रकट ही रही।

इस तरह अंग्रेजी साम्राज्य के दौर से चली आ रही अंग्रेज़ी के भ्रमजाल के आवरण में रहते हुए अंग्रेजी को विश्व की सार्वभौम भाषा मान लेना भी हमारी अंग्रेजी की पक्षधरता वाली मानसिकता का एक प्रमुख कारण था। यह अलग बात है कि अंग्रेजी ही नहीं अधिकाधिक भाषाओं को जानना समझना श्रेयस्कर है परन्तु ज्ञान के माध्यम और औपनिवेशिकता के पोषक की भूमिकाओं के बीच अंतर करना जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अंग्रेजी कहीं न कहीं कुशलता, मौलिकता और सृजनात्मकता को भी कुंठित करती दिख रही है जिसके चलते विदेशों की ओर प्रतिभा पलायन बढ़ता जा रहा है और देशज शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं हो रहा है।

भाषाओं के सामाजिक सन्दर्भ में यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि मातृभाषा स्वाभाविक रूप से और बड़ी गहनता के साथ बच्चे को जन्म के समय से ही उसके परिवार में उपलब्ध रहती है। मातृभाषा का ध्वनि रूप और उससे जुडे हावभाव लिखने-पढ़ने की क्षमताओं के पहले से ही उपलब्ध रहते हैं। स्कूल जाने के पहले औपचारिक रूप में बच्चे के पास प्रचुर शब्द भंडार (तीन साल की उम्र में 1000 शब्द) सहज उपलब्ध रहता है और वह प्रभावी भी रहता है। इस तथ्य के मद्देनजर सभी विकसित देशों में मातृभाषा में ही प्रारम्भिक शिक्षा देने की प्रथा स्वीकृत और प्रयुक्त है। भारत में स्वभाषा-प्रयोग का विस्तार लोक-भाषा या जन भाषा मानते हुए घर और अनौपचारिक परिधि में क़ैद कर दिया गया है और औपचारिक ज्ञान के लिए अंग्रेजी को ही मुफीद माना जाता रहा है।

ज्ञान पाने की औपचारिक व्यवस्था यदि मातृभाषा से भिन्न किसी दूसरी भाषा में होती है तो सिखाने और सीखने का काम अनावश्यक रूप से कठिन हो जाता है। इसके साथ समय और श्रम भी अधिक लगता है। मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक अध्ययनों से प्रकट है कि शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का उपयोग मौलिकता, सृजनात्मकता और शैक्षिक उपलब्धि को सुनिश्चित करने वाला होता है। नागरिक जीवन में मातृभाषा/ क्षेत्रीय भाषा का अधिकाधिक उपयोग लोकतंत्र की व्यवस्था को भी को मजबूत करेगा।

भाषाएँ जीवन का अविभाज्य अंग होती हैं इसलिए उनको नष्ट होने से बचाने का काम होना चाहिए। औपनिवेशिकता से उबरने और शिक्षा और विज्ञान को लोक मानस के पास पहुँचाने और जीवन की गुणवत्ता बढाने में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक उपयोग होना चाहिए। देश की नई शिक्षा नीति इस प्रश्न के प्रति संवेदनशील है और आशा है कि वादे के मुताबिक़ मातृभाषा का शिक्षा के परिसर में स्वागत होगा।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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