(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) जब सांप को देखकर भाग खड़े हुए प्रेम चोपड़ा
अजय कुमार शर्मा
लाहौर में जन्मे और शिमला में पले-बढ़े प्रेम चोपड़ा शिमला में थिएटर किया करते थे। उस समय के हर नौजवान की तरह बंबई (अब मुंबई) जाकर एक्टर बनने के सपने देखा करते थे, लेकिन उस समय के हर पिता की तरह उनके पिता भी चाहते थे कि वे कोई सरकारी नौकरी करें। पिता की बात का सम्मान करते हुए उन्होंने शिमला, करनाल, दिल्ली में कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं और एक दिन मौका देखकर बंबई पहुंच गए। उस समय उनकी उम्र लगभग 20 साल थी। वे चार महीने दादर की एक लॉज में रहे। वहां का किराया उस समय 50 रुपये महीना हुआ करता था जिसमें खाने का पैसा भी शामिल था। जब उनके पिताजी को पता चला तो उन्होंने उनकी नौकरी वहां के एक सी मेंस एंप्लॉयमेंट के कार्यालय में लगवा दी जहां लोगों को चुनकर जहाजों पर काम के लिए भेजा जाता था। इस नौकरी के सहारे वे सागर विहार में अपने चार दोस्तों के साथ किराए पर एक फ्लैट लेकर रहने लगे। सभी मित्र रोज शाम को काम की तलाश में स्टूडियो के चक्कर लगाया करते थे। इस दौरान उन्हें कुलदीप सहगल और लेखराज भाकरी की फ़िल्म ‘तांगेवाली’ में एक छोटा सा पुलिस इंस्पेक्टर का रोल मिला। इसके हीरो शम्मी कपूर थे। फिल्म 1955 में रिलीज़ हुई थी। इसके दिल्ली प्रीमियर पर उनकी मुलाकात लेखराज भाकरी के चचेरे भाई मनोज गोस्वामी जो बाद में मनोज कुमार नाम से प्रसिद्ध हुए से हुई और जल्द ही दोनों अच्छे दोस्त बन गए। आगे फिल्मों में कोई बात नहीं बनी तो पिता ने उन्हें फिर शिमला बुला लिया।
आखिरकार 1960 में फिर वह घर छोड़कर मुंबई आ गए और यहां टाइम्स ऑफ इंडिया में नौकरी शुरू की। इस नौकरी में उन्हें फ़िल्म स्टूडियो के चक्कर लगाने के लिए काफ़ी समय मिल जाता था। स्टूडियो के चक्कर लगाने का तो कोई फायदा नहीं हुआ लेकिन एक दिन लोकल ट्रेन में उन्हें एक सज्जन ने पंजाबी फिल्म में हीरो के रोल का ऑफर दिया। हिंदी न सही पंजाबी ही सही यह सोचकर उन्होंने हां कर दी। फ़िल्म का नाम था ‘चौधरी करनैल सिंह’ था और यह 1960 में रिलीज हुई। इसके लिए उन्हें 2000 रुपये मिले थे, वह भी 500 रुपये की वार्षिक किस्तों पर। फिल्म हिट हो गई तो उन्हें पंजाबी की कुछ और फिल्में मिलीं जिसमें एक फिल्म का नाम ‘सपनी’ था। इस फिल्म में उन्हें एक सपेरे का रोल करना था। प्रेम चोपड़ा को यह नहीं पता था कि फिल्म में सांप के साथ शूटिंग भी करनी होगी। उन्हें सांप से बेहद डर लगता था। शुरू के दो-तीन दिन तो शूटिंग के दौरान सांप से उनका कोई वास्ता न पड़ा, लेकिन एक दिन एक दृश्य के लिए उन्हें सांप का पिटारा खोलकर सांप को बाहर निकालना था। वे बुरी तरह डर हुए थे और जैसे ही टोकरी थोड़ी सी खुली वे डरकर वहां से भाग खड़े हुए। ऐसा एक बार नहीं दो तीन बार हुआ।
चौथी बार थोड़ी हिम्मत करके जैसे-तैसे उन्होंने टोकरी खोलकर सांप को छुआ लेकिन फिर भाग खडे हुए। आखिर उन्होंने फिल्म में काम करने से इनकार कर दिया, लेकिन फिल्म की काफी शूटिंग हो चुकी थी और पंजाबी फिल्में बहुत कम बजट में बना करती थीं इसलिए रास्ता निकाला गया कि असली की जगह नकली सांप से काम चलाया जाए। तब कहीं जाकर यह फिल्म पूरी हुई। सांप से डरने का तो आलम यह है कि यदि वे अभी भी टीवी या फिल्म के पर्दे पर उसे देख लें तो डर जाते हैं। इस बीच 1962 में उन्होंने ‘डॉ विद्या’ फिल्म में एक छोटी सी भूमिका की। इस फिल्म के हीरो मनोज कुमार थे। इसमें उन्होंने कॉलेज स्टूडेंट का रोल किया था। इन्हीं स्ट्रगल के दिनों में महबूब खान जिन्होंने उसी समय ‘सन ऑफ इंडिया’ फिल्म बनाई थी ने उन्हें एक महत्वपूर्ण रोल देने का वादा किया था, लेकिन उनकी तबीयत खराब होने के कारण बात न बन सकी। इस बीच राज खोसला द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘वह कौन थी’ में खलनायक का रोल मिला। उन्हें डर था कि एक बार खलनायक का ठप्पा लग गया तो हीरो बनने की तमन्ना अधूरी रह जाएगी, लेकिन कोई और चारा न था। यह फिल्म 1964 में आई और सुपरहिट हुई। इसके बाद तो प्रेम चोपड़ा खलनायकी का पर्याय ही बन गए।
चलते चलते
प्रेम चोपड़ा ने टाइम्स ऑफ इंडिया में 1960 से 1967 तक नौकरी की। उनका पद सुपरवाइजर का था और उन्हें बंगाल, बिहार और ओडिशा (तब उड़ीसा) में अखबार की बिक्री बढ़ाने का जिम्मा दिया गया था। उनकी तनख्वाह उस समय 500 रुपये प्रतिमाह थी और यात्रा भत्ता अलग से मिलता था। वह स्ट्रगल और शूटिंग के लिए ज्यादा समय निकालने के लिए अपने एजेंटों से स्टेशन पर ही मिल लिया करते थे और रेलवे के रिटायरिंग रूम में रहकर अपने दौरे के 15 दिन का काम 10 या 12 दिन में ही निपटा कर मुंबई आ जाया करते थे। करनैल सिंह की शूटिंग के लिए वे अपनी शादी का बहाना बनाकर छुट्टी लेकर गए थे। वापस आने पर जब ऑफिस में सब लोगों ने उन्हें विवाह की बधाई दी और पत्नी से मिलने की इच्छा जाहिर की तो उन्हें झूठ बोलना पड़ा कि दोनों परिवारों के बीच मतभेद होने के कारण यह शादी नहीं हो पाई।
(लेखक, राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)