उत्तर प्रदेश

रिसर्च : इंसेफेलाइटिस के बाद अब लेप्टोस्पायरोसिस बना घातक बुखार की वज़ह

– महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय से संबद्ध गुरु गोरखनाथ चिकित्सालय की केस स्टडी

– आरएमआरसी के सहयोग से शुरू हुआ बुखार के मरीजों पर शोध

– केस स्टडी के विश्लेषण पर एम्स, केजीएमयू, बीआरडी, आरएमआरसी के विशेषज्ञों ने किया मंथन

– चूहों से हो रही यह बीमारी, उन्मूलन के लिए चूहों पर नियंत्रण जरूरी

गोरखपुर, 12 अगस्त। पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार (इंसेफेलाइटिस) के बाद अब नए प्रकार के घातक बुखार का असर देखने को मिल रहा है। इसे लेकर महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय और इससे संबद्ध चिकिसालय द्वारा रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर (आरएमआरसी) के सहयोग से रिसर्च किया है। इस घातक बुखार के लिए लेप्टोस्पायरोसिस नामक बीमारी को वज़ह बताया गया है। इसके मुख्य वाहक चूहे हैं।

बीमारी को लेकर रिसर्च इसके भयावह होने से पहले ही शुरू हो गया है। विशेषज्ञों ने विश्वास जताया है कि समय रहते इसे उन्मूलित कर लिया जाएगा। बुखार के नए स्वरूप पर महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय द्वारा किए गए रिसर्च या केस स्टडी को लेकर शुक्रवार को विभिन्न संस्थाओं के विशेषज्ञों के मध्य कांफ्रेंस हुआ। रिसर्च परिणाम पर मंथन हुआ।

केस स्टडी का प्रेजेंटेशन देते हुए महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय के कुलपति मेजर जनरल डॉ अतुल वाजपेयी ने बताया कि विश्वविद्यालय से संबद्ध गुरु गोरखनाथ चिकित्सालय में इस वर्ष आरएमआरसी के सहयोग से बुखार का कारण जानने का प्रयास है। शोध में 50 फीसद नमूनों में लेप्टोस्पायरोसिस की पुष्टि हुई है। अस्पताल में भर्ती मरीजों पर पांच प्रकार की बीमारियों स्क्रब टायफस, लेप्टोस्पायरोसिस, डेंगू, चिकनगुनिया व एंटरोवायरस पर जांच की गई। 20 जून से 6 अगस्त तक कुल 88 रक्त नमूनों की जांच हुई। इनमें से 50 फीसद यानी 44 नमूने लेप्टोस्पायरोसिस पॉजिटिव पाए गए, जबकि 1 नमूने में स्क्रब टायफस, 9 में डेंगू आईजीएम, 3 में चिकनगुनिया व 3 में एंटरोवायरस पॉजिटिव होने का पता चला है।

मेजर जनरल डॉ वाजपेयी ने बताया कि विश्लेषण में पाया गया कि लेप्टोस्पायरोसिस बीमारी 20 से 60 वर्ष के उम्र के लोगों में हो रही है। इससे बिना ठंड के उच्च तापमान का बुखार हो रहा है। मरीज के पूरे शरीर में दर्द रहता है। चौथे-पांचवे दिन कुछ मरीजों में हल्के पीलिया व कुछ में निमोनिया के लक्षण मिलते हैं।

इन दवाओं का नहीं हो रहा असर

उन्होंने बताया कि इनमें मोनोसेफ, मैरोपैनम व थर्ड-फोर्थ जनरेशन की एंटीबायोटिक दवाओं का उतना असर नहीं होता, जितना सामान्य निमोनिया के मामलों में दिखता है। इससे इलाज में देर हो रही है।

चूहों के पेशाब से हो रही बीमारी

डॉ वाजपेयी ने बताया कि लेप्टोस्पायरोसिस अधिकतर चूहों के शरीर में रहता है और उसके पेशाब से यह वातावरण में आता है। त्वचा के जरिये यह मनुष्य के शरीर में पहुंच कर उसे बीमार कर सकता है। लेप्टोस्पायरोसिस के इलाज में टेट्रासाइक्लिन, क्लोरोमाईसेटिन, डॉकसीसाईक्लिन आदि एंटीबायोटिक दवाएं कारगर हैं, लेकिन वर्तमान में इनका उपयोग डॉक्टरों द्वारा अपेक्षाकृत कम किया जा रहा है। दवाओं की उपयोगिता समझने के साथ इस बीमारी पर नियंत्रण पाने के लिए चूहों पर नियंत्रण पाना बेहद अहम होगा।

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