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सरकारों का बढ़िया मारक प्लान

रामविलास जांगिड़


पहले खूब पेड़ हुआ करते थे और आत्महत्या करने वाला जीव किसी भी पेड़ पर फंदा लगाकर अपने प्राणों के पखेरू आसमान में उड़ा दिया करता था। संजीवनी आत्महत्या एसोसिएशन ने मांग की कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएं।

पेड़ों की भारी कमी हो रही है, ऐसे में फांसी लगाने के लिए लटकें कहां? बहुत पहले रेलगाड़ी के नीचे दबकर मरने का फैशन था। लोग प्यार में ही ज्यादा मरा करते थे। अब प्यार से निकलकर वार तक रेलगाड़ी के नीचे दबकर मरने का फैशन है। मरणाकांक्षी की रेल की पटरी पर बैठ-लेटकर आत्महत्या करने की सुविधा भी सरकार ने छीन ली है। रेलगाड़ियां इतनी देरी से आती है कि आत्महत्याकांक्षी पटरियों पर पड़ा-पड़ा बोर होने लगता है। उसका शरीर अकड़ जाता है। ऐसे में प्रशासन को हमारी ओर ध्यान देकर मरने की अच्छी सुविधा देनी चाहिए। रेलगाड़ियां समय पर चलाई जानी चाहिए ताकि आत्महत्या करने का निर्धारित लक्ष्य पूरा किया जा सके। और तो और आजकल कुएं भी नहीं रहे। लोग जगह-जगह ट्यूबवेल खोदकर धरती के सीने में छेद पर छेद किए जा रहे हैं। अब इन ट्यूबवेलों में गिर कर मरने की सुविधा नहीं है। सरकार को चाहिए कि हर एक गांव-शहर में कुओं की व्यवस्था करें ताकि आत्महत्या करने वाले किसी भी सामान्य जन को इधर-उधर भटकना नहीं पड़े। पहले कुओं में पानी होता था, तो मरने में समस्या होती थी। स्याणे लोग आत्महत्या करने के लिए कूदते थे और चालाकी से तैर कर बाहर निकल जाया करते थे।
इधर झील-बावड़ियां भी नहीं रही। झीलें सपाट मैदान बन गई हैं। बावड़ियों में डाकू लोगों ने अपने अड्डे बना लिए हैं। ये स्थान चोर-पुलिस के छुपन-छुपाई खेलने के स्थान बन गए। मरने की ये सुविधा भी सरकार ने हमसे छीन ली है। सरकार झील-बावड़ियों का पुन: उद्धार करें ताकि उनमें डूबकर मरने का आनंद लिया जा सके। आदमी मरने के लिए जहर खरीदता है और वह जहर खाकर डांस करते हुए इठलाने लगता है।

इधर जहर खाकर मरने का देसी नुस्खा भी लगभग खत्म हो गया है। जो भी जहर मिलता है, उसमें भी कीड़े पड़े होते हैं। ऐसे में आत्महत्याकांक्षी जाए तो कहां? सरकार अब जिला आत्महत्या केंद्रों का शीघ्र विकेंद्रीकरण करे। मरने की घनघोर असुविधा में मरने की इच्छा भी अब जाती रही है। इधर थोड़ी-सी खुशी की बात यह है कि सरकार ने आत्महत्या करने के लिए अब अस्पतालों के रास्ते खोल दिए हैं। जो कोई भी सामान्य जन आत्महत्या करना चाहता है, वह सीधे अस्पताल का रुख कर सकता है।

भला हो अपनी प्यारी सी सरकार का जिसने ये सुविधा चालू कर दी है। मगर कमबख्त बिजली में इतनी कटौती चल रही है कि आत्महत्या करने वाला घंटों तारों पर लटके हुए रहने के बाद भी मर नहीं पाता है। सरकार चाहिए को चाहिए कि इतनी ज्यादा बिजली कटौती न करें और मरने की उत्तम सुविधा प्रदान करें। वैसे खुली आत्महत्या करने का अपना एक अलग ही आनंद है! चाहें तो खड़े-खड़े सड़क पर ही सांसों का फंदा लगाकर आत्महत्या कर लें या पड़े-पड़े एंबुलेंस में ही यमराज को बुला लें! अस्पताल के भीतर मरने की विशेष प्रकार की सुविधा उन लोगों को है, जो आत्महत्या करने में अधिक से अधिक पैसे खर्च करने की रुचि व क्षमता रखते हों। फिलहाल गरीब को अस्पताल के बाहर ही मरने की सुविधा है। जो भी हो, घटिया सरकारों द्वारा मारने का बढ़िया प्लान है!

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