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बोरवेल में कब तक दम तोड़ती रहेंगी मासूम जानें?

योगेश कुमार गोयल

देश के विभिन्न हिस्सों में लगातार होते बोरवेल हादसे चिंता का सबब बन रहे हैं। पिछले दिनों महज एक सप्ताह के दौरान तीन बोरवेल हादसों का होना और तीन में से दो हादसों में बच्चों की मौत हो जाना, ऐसे हादसों को लेकर आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। 27 फरवरी को मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पटेरा गांव में हुई हृदयविदारक घटना में प्रिंस नामक 4 वर्षीय बच्चा खेलते हुए करीब 300 फुट गहरे खुले बोरवेल में गिरकर 15-20 फीट गहराई में फंस गया। हालांकि जिला प्रशासन और पुलिस की टीम ने उसे बचाने के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया गया लेकिन 6 घंटे के बचाव अभियान के बाद उसे बोरवेल से मृत ही बाहर निकाला जा सका। 15 दिन बाद ही बच्चे का जन्मदिन भी था। बोरवेल का निर्माण बच्चे के पिता ने ही कराया था, जिसे ढंके नहीं जाने के कारण यह दर्दनाक हादसा हुआ।

इस घटना से पहले 24 फरवरी को राजस्थान के सीकर के बिजारणिया की ढ़ाणी में खेलते-खेलते अपने ही खेत में खुले पड़े 50 फुट गहरे बोरवेल में 4 वर्षीय रविन्द्र गिर गया था। एसडीआरएफ सहित अन्य बचाव दलों द्वारा चलाए गए 25 घंटे के रेस्क्यू अभियान के बाद आखिरकार बच्चे को सकुशल बाहर निकाल लिया गया। 23 फरवरी को मध्य प्रदेश के उमरिया जिले के बरछड़ में अपने ही परिवार के खेत में खुले बोरवेल में 4 वर्षीय गौरव संतोष दुबे खेलते हुए गिर गया। हालांकि उसे रेस्क्यू कर बचाव टीमों द्वारा अगले दिन सुबह बोरवेल से निकाल लिया गया लेकिन कटनी जिले के बरही सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में ले जाए जाने पर डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

थोड़े-थोड़े अंतराल पर लगातार सामने आते ऐसे दर्दनाक हादसे गहरी चिंता का सबब बन रहे हैं लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि न तो ऐसे हादसों पर लगाम कसने के लिए कड़े कदम उठाने की पहल होती दिखती है और न ही बोरवेल हादसों को लेकर समाज को जागरूक करने के प्रयास हो रहे हैं। इन हादसों से लोग स्वयं भी सबक सीखने को तैयार नहीं दिखते। थोड़े-थोड़े अंतराल बाद जब ऐसी घटनाएं सामने आती हैं तो पता चलता है कि न तो आमजन ने और न ही प्रशासन ने ऐसी दिल दहलाने वाली घटनाओं से कोई सबक सीखा। ऐसे हादसों में प्रायः देखा जाता रहा है कि लोगों द्वारा फसलों की सिंचाई के लिए अपने खेत में बोरिंग कराने के बाद उसके सफल नहीं होने पर बोरवेल के गड्ढे को बंद कराने के बजाय खुला छोड़ दिया जाता है, जो अक्सर ऐसे दर्दनाक हादसों का कारण बनते हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर लगातार सामने आते बोरवेल हादसों के बावजूद खुले बोरवेलों में कब तब मासूम जानें इस तरह दम तोड़ती रहेंगी?

अक्सर देखा जाता है कि बहुत-सी जगहों पर पानी उपलब्ध नहीं होने पर किसानों द्वारा खराब ट्यूबवैल उखाड़कर दूसरे स्थान पर स्थानांतरित कर दिया जाता है लेकिन ट्यूबवैल उखाड़ने के बाद भी बोरवेल को कंक्रीट से भरकर समतल करने के बजाय किसी बोरी या कट्टे से ढ़ंककर खुला छोड़ दिया जाता है, जो बहुत बार मासूम बच्चों का काल बन जाते हैं। कोई बड़ा हादसा होने पर प्रशासन द्वारा बोरवेल खुला छोड़ने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर सख्ती की बातें दोहरायी जाती हैं लेकिन निरंतर सामने आते ऐसे हादसे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सख्ती की ये सब बातें महज बयानों तक ही सीमित रहती हैं। सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों के बावजूद कभी ऐसे प्रयास नहीं किए गए, जिससे ऐसे मामलों पर अंकुश लग सके।

21 जुलाई 2006 को हरियाणा के हल्दाहेड़ी गांव में पांच वर्षीय प्रिंस के 50 फुट गहरे बोरवेल में गिरने के बाद रेस्क्यू ऑपरेशन के दृश्य टीवी चैनलों पर लाइव दिखाये जाने के चलते पहली बार पूरी दुनिया का ध्यान ऐसे हादसों की ओर गया था और तब उम्मीद जताई गई थी कि भविष्य में फिर कभी ऐसे हादसे सामने नहीं आएंगे किन्तु विड़म्बना है कि देश में प्रतिवर्ष औसतन करीब 50 बच्चे बेकार पड़े खुले बोरवेलों में गिर जाते हैं, जिनमें से बहुत से बच्चे इन्हीं बोरवेलों में जिंदगी की अंतिम सांसें लेते हैं। भूगर्भ जल विभाग के अनुमान के अनुसार देशभर में करीब 2.70 करोड़ बोरवेल हैं लेकिन सक्रिय बोरवेलों की संख्या, अनुपयोगी बोरवेलों की संख्या तथा उनके मालिक का राष्ट्रीय स्तर का कोई डाटाबेस मौजूद नहीं है।

ऐसे हादसे न केवल निर्बोध मासूमों की बलि लेते हैं बल्कि रेस्क्यू ऑपरेशनों पर अथाह धन, समय और श्रम भी नष्ट होता है। आए दिन होते ऐसे भयावह हादसों के बावजूद न तो आम आदमी जागरूक हो पाया है, न ही प्रशासन को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत है। कहीं बोरिंग के लिए खोदे गए गड्ढ़ों या सूख चुके कुओं को बोरी, पॉलीथीन या लकड़ी के फट्टों से ढांप दिया जाता है तो कहीं इन्हें पूरी तरह से खुला छोड़ दिया जाता है और अनजाने में ही कोई ऐसी अप्रिय घटना घट जाती है, जो किसी हंसते-खेलते परिवार को जिंदगीभर का असहनीय दर्द दे जाती है। न केवल सरकार बल्कि समाज को भी ऐसी लापरवाहियों को लेकर चेतना होगा ताकि भविष्य में फिर ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति न हो।

देश में ऐसी स्वचालित तकनीकों की भी व्यवस्था करनी होगी, जो ऐसी विकट परिस्थितियों में तुरंत राहत प्रदान करने में सक्षम हों। दरअसल ऐसे मामलों में सेना-एनडीआरएफ की बड़ी विफलताओं को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं कि अंतरिक्ष तक में अपनी धाक जमाने में सफल हो रहे भारत के पास चीन तथा कुछ अन्य देशों जैसी वो स्वचालित तकनीक क्यों नहीं है, जिनका इस्तेमाल कर ऐसे मामलों में बच्चों को अपेक्षाकृत काफी जल्दी बोरवेल से बाहर निकालने में मदद मिल सके।

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