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छत्रपति शिवाजी के शिल्पी समर्थ रामदास

स्वामी समर्थ रामदास जयंती

प्रवीण गुगनानी

हमारे सनातनी संत केवल संत होकर तपस्या, धार्मिक अनुष्ठान, पूजा पाठ व मोक्षप्राप्ति के हेतु ही कार्य ही नहीं करते हैं अपितु समय-समय पर देश समाज की राजनीति को राजदरबार (संसद) से लेकर, समाज के चौक चौबारों तक व युद्ध की भूमि में जाकर रणभेरी बजाने तक का कार्य वे भली-भांति करते रहे हैं। महर्षि विश्वामित्र, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि सांदिपनी, ऋषि जमदग्नि से लेकर चाणक्य, सिक्ख गुरुओं की समूची परंपरा व गुरु समर्थ रामदास जैसे कई उदाहरण हमारे समाज की कथाओं व आख्यानों में यहाँ-वहां लिखे-पढ़े जाते रहे हैं। प्रत्येक भारतीय शासक या राजा की पृष्ठभूमि में कोई न कोई संत महात्मा उसकी समूची राजनीति के सूत्र व मार्गदर्शन देता रहा है; कभी ये संत ज्ञात रहे तो कभी अज्ञात रहकर पृष्ठ से राज्य को दिशा देते रहे हैं।

ऐसे ही एक अद्भुत प्रतिभाशाली व पुण्यशाली संत हैं स्वामी समर्थ रामदास। शिवाजी के चरित्र निर्माण व उनके जुझारू व्यक्तित्व की जनक माता जीजाबाई थी तो छत्रपति के शिल्पी समर्थ रामदास थे। शिवाजी का व्यक्तित्व निर्माण उनके गुरु समर्थ रामदास के बिना अधूरा ही था। स्वातंत्र्योत्तर भारत का वामपंथी व विदेशी प्रकार का चिंतन भारतीय शासकों के संदर्भ में सनातनी संतों के सक्रिय, तेजस व प्रेरक मार्गदर्शन को साशय नकारता रहा है। कभी ये चन्द्रगुप्त मौर्य के पीछे चाणक्य की भूमिका को नकारते हैं तो कभी ये समर्थ रामदास जी को नकारने लगते हैं। शिवाजी व समर्थ रामदास जी के सन्दर्भों में तो ये वामपंथी चिंतन एतिहासिक तथ्यों व तिथियों को भी झूठलाते हुए गुरु रामदास जी व शिवाजी का कालखंड ही अलग-अलग बताने का दुस्साहस करता है। जबकि यह इतिहास प्रमाणित अकाट्य तथ्य है कि दोनों का जीवनकाल लगभग एक साथ था और शिवाजी की प्रत्येक राजनैतिक व सामरिक गतिविधियाँ समर्थ रामदास जी के मार्गदर्शन में हुआ करती थी।

बड़ा ही दुखद आश्चर्य का विषय है कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार जैसे राजनीतिज्ञ भी बिना तथ्यों को जाने समर्थ रामदास को शिवाजी का गुरु मानने से ही इनकार कर देते हैं। शरद पवार कहते हैं कि ये झूठ है कि समर्थ रामदास, शिवाजी के गुरु थे और उन्होंने ही शिवाजी के व्यक्तित्व को तराशा। हमारे कथित बुद्धिजीवी व वामपंथी चिंतक लेखकों के दुष्प्रभाव से हमारे कई बड़े नेता ब्राह्मणों और हिन्दू साधु-संतों के विरुद्ध ऐसी घृणा भरी धारणा बनाकर बैठे हैं कि वे उनके योगदान को स्वीकार कर ही नहीं पाते। भारत में ये एक बड़े विमर्श का विषय है कि कई बड़े राष्ट्रीय स्तर के नेता सनातनी संतों के विषय में किस प्रकार हमारे मर्यादापूर्ण, गौरवमयी व तेजस्वी इतिहास को झुठलाने के षड्यंत्र में झूठ की मशीन के एक पुर्जे बन जाते हैं और ऐसा करके ये इतिहासहंता स्वयं को प्रगतिशील मानने का भ्रम भी पाल बैठते हैं। समर्थ रामदास जी के संदर्भ में शरद पवार का व्यक्तव्य इस बात का ज्वलंत उदाहरण है।

औरंगजेब के विरुद्ध संघर्ष के दौरान स्वामी समर्थ रामदास की ख्याति सुनकर शिवाजी ने गुरूजी को पत्र भेजकर उनसे मिलने की अनुमति मांगी थी। उत्तर में समर्थ रामदास ने लिखा कि दिल्ली के मुगल दरबार में हाजिरी लगाने व भीगी बिल्ली बने रहने वाले बहुत से शासक उन्होंने देखे हैं किंतु वे शिवाजी में धर्मरक्षक सम्राट होने के गुणों को देखते हैं। गुरूजी ने शिवाजी का धर्मरक्षा हेतु आह्वान किया जिससे शिवाजी के अंतस की पीड़ा व शौर्य जागृत हो उठा। वीर शिवाजी समर्थ रामदास जी से ऐसे प्रभावित हुए कि वे उनसे मिलने हेतु अधीर हो उठे और स्वयं ही अपना लिखा पत्र लेकर चाफल के श्रीराम मंदिर के नीचे की पहाड़ी पर शिंगणवाडी के जंगलों में पहुँच गए। इसके बाद जो हुआ वह माता जीजाबाई जैसी शेरनी के शावक के वनराज बनने की कहानी है।

शिवाजी का राज्याभिषेक समर्थ रामदास जी के मार्गदर्शन में ही हुआ व शिवाजी ने उन्हें ही सर्वप्रथम अपना राजचिह्न भेंट किया। वेलुर वैराग्य विषय हो या अफजल खान को बघनखों से फाड़ डालने का कार्य हो या शिवाजी के अनेकानेक अन्य कृतित्व हों समर्थ रामदास सदैव इन निर्णयों की पृष्ठभूमि में सक्रियता से बने रहे। शिवथरगल में आज भी वो जगह मौजूद है, जहाँ समर्थ रामदास ने ‘दशबोध’ का लेखन कार्य किया था। शिवाजी ने अपना समूचा राज्य गुरु रामदास को अर्पित कर दिया था जिसे “चार्टर आफ चाफल” भी कहा जाता है। गुरु रामदास जी की शिक्षा से ही शिवाजी महाराज संत तुकाराम, पटगाँव के मौनी महाराज, केल्शी के रामदास स्वामी आदि संतों और महंतों से मार्गदर्शन लेते थे। शिवाजी को “जाणता राजा” की उपाधि समर्थ रामदास जी ने ही दी थी।

समर्थ रामदास का मूल नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था। इनका जन्म जालना, महाराष्ट्र के जांब में 1608 की रामनवमी को मध्यान्ह में ऋग्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे बाल्यकाल से विभिन्न धर्मशास्त्रों का पाठ व नियमित पारायण करते थे। एक दिन माता राणुबाई ने नारायण से कहा, ‘तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं। यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गया। जब दिनभर नारायण नहीं दिखा तो परिवार उन्हें खोजने लगा और वह मेधावी बालक घर में एक कमरे में साधना करते हुए मिला। जब नारायण से पूछा गया कि क्या कर रहे हो तो उसने उत्तर दिया की मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूं।

यह दिन नारायण से समर्थ रामदास बनने के मार्ग का प्रारंभ था। इसके बाद गुरु समर्थ रामदास की आध्यात्मिक व राष्ट्र्साधना की अनथक, अनहद व अविरल यात्रा प्रारंभ हो गई। नारायण ईश्वर साधना के साथ व्यायाम व शारीरिक कौशल की अधिकाधिक ध्यान देने लगे। वे पवनपुत्र हनुमान के अनन्य भक्त बनते चलते गये व कालांतर में एक ऐसा समय आया जब बड़े-बड़े संत, महात्मा व सिद्धपुरुष समर्थ रामदास को साक्षात हनुमान जी अवतार मानकर उनकी आराधना करने लगे। समर्थ रामदास ने अपने जीवनकाल में एक हजार से अधिक हनुमान मंदिरों की स्थापना की। प्रत्येक हनुमान मंदिर को वे व्यायामशाला व अखाड़े के रूप में विकसित कर देते थे व वहां युवाओं को शारीरिक रूप से बलशाली बनाकर राष्ट्र, संस्कृति व हिंदुत्व की रक्षा के पाठ को घुट्टी रूप में पिला देते थे। समर्थ रामदास जी द्वारा विकसित इन व्यायाम शालाओं से निकले हुए योद्धा शिवाजी महाराज की सेना के सिपाही बनकर राष्ट्ररक्षा में जुट जाते थे व मुस्लिम आक्रान्ताओं की सेना का सामना किया करते थे।

समर्थ गुरु रामदास अद्भुत शारीरिक क्षमता के धनी थे व 1200 सूर्य नमस्कार प्रतिदिन लगाते थे। संगीत के भी वे अद्भुत साधक थे। हनुमान जी की ही भांति वे बल बुद्धि के सिद्धार्थ हो गए थे। उन्होंने दशबोध, आत्माराम, मनोबोध आदि ग्रंथों का लेखन किया व आत्माराम, मानपंचक, पंचीकरण, चतुर्थमान, बाग़ प्रकरण, स्फूट अभंग आदि की रचना की। समर्थ रामदास जी के दशबोध ग्रंथ को ग्रंथराज कहा जाता है, इसे उन्होंने अपने परम शिष्य योगीराज कल्याण स्वामी के हाथों से महाराष्ट्र के शिवथर घल (गुफा) नामक रम्य एवं दुर्गम गुफा में रचा। समर्थ रामदास रचित सैकड़ों मराठी आरतियां, अभंग व भजन आज भी महाराष्ट्र के चप्पे-चप्पे में गई जाती है।

गुरु समर्थ रामदास का रचना संसार वीररस, धर्मरक्षा व राष्ट्रचेतना के भाव से सराबोर है। बहुत से विद्वानों की यह मान्यता है कि हनुमान मंदिर, व्यायामशाला व अखाड़ों के माध्यम से उनके द्वारा तैयार युवा योद्धाओं के दल का सीधा प्रभाव लोकमान्य बालगंगाधर तिलक व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार के जीवन पर बहुत गहरा पड़ा व वे उनके सार्वजनिक जीवन व कृतित्व में इसका स्पष्ट प्रभाव दिखता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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