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सुनील महला

पिछले कुछ समय से अखबारों में, सोशल मीडिया पर ये खबरें पढ़ने को मिल रही हैं कि अखबारी कागज महंगा हो गया है और इससे छोटे अखबारों पर विशेषकर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ रहा है। वित्त के अभाव में छोटे व मंझले अखबार या तो बंद हो गये हैं या तो बंद होने की कगार पर पहुंच गए हैं। आज न केवल हमारा देश भारत बल्कि दुनियाभर के देश अखबारी कागज के संकट का सामना कर रहे हैं। घटते जंगलों, बढ़ती आबादी के कारण कागज की लगातार बढ़ती डिमांड से जहां एक ओर अखबारी कागज के दामों में बेतहाशा वृद्धि हुई है , वहीं दुनियाभर में इसकी उपलब्धता की बहुत ज्यादा कमी से अखबार निकालना या अखबार चलाना अब पहले से और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। आज वनों की संख्या में लगातार कमी आई है और यही कारण है कि कागज का उत्पादन घटा है , कागज की सप्लाई कमजोर हुई है। ऐसे में इसके दाम आज सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गए हैं। भारत ही नहीं दुनिया के अनेक देश आज अखबारी कागज की कमी का सामना कर रहे हैं। यह लेखक कुछ दिनों पहले एक आर्टिकल पढ़ था, उससे इस लेखक को पता चला कि भारत के पड़ौसी देश श्रीलंका में तो हजारों लाखों स्कूली छात्र-छात्राओं की परीक्षाओं को केवल इसलिए रद्द करना पड़ा क्योंकि वहां प्रश्न पत्र छापने के लिए कागज ही उपलब्ध नहीं था। यहाँ तक कि उनके पास कागज आयात करने के लिए विदेशी मुद्रा का भंडार तक भी उपलब्ध नहीं है।

वास्तव में आधुनिक युग में कागज की समस्या अत्यंत गंभीर इसलिए मानी जा सकती है, क्योंकि कागज पर किसी भी देश की शिक्षा, अखबार उधोग निर्भर है। बताता चलूँ कि भारत अपनी जरूरत का करीब 50 प्रतिशत अखबारी कागज विभिन्न देशों से आयात करता है, और यह भी एक कारण है कि हमारे यहाँ कागज काफी महंगा है। आयातित अखबारी कागज की कीमत दिसंबर 2020 तक 380 से 400 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन थी ,

वर्तमान में यह 1050 से 1100 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन हो गई है। यानी कि अखबारी कागज के दामों में 175 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि हुई है। बताता चलूँ कि वर्ष 2018 में घरेलू अखबार की कीमत 26 से 28 रुपए किलो तक हुआ करती थी और जैसे ही चीन में कागज की आपूर्ति आरंभ की गई, तो ये दरें बढ़कर 35 से 38 रुपए प्रति किलो पर पहुंच गईं। यानी कि लगभग लगभग दस रुपए प्रति किलो तक का उछाल कागज में आया है। आज कागजों की कीमतें 60 रुपए से 75 रुपए प्रति किलो पर जाकर टिकी हैं। वर्ष 2018 में कागज 290 डॉलर प्रतिटन हुआ करता था, जो कि कोविड काल के आरंभ में (कोरोना महामारी के दौर में) 380 डॉलर प्रति टन तक पहुंचा और वर्तमान में इसकी दरें 960 से 1000 डॉलर प्रति टन पर जा पहुंची हैं। बताता चलूँ कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में पल्प की कीमतें बढ़ने के बाद घरेलू स्तर पर विभिन्न कंपनियों ने कागज के दाम बढ़ा दिए है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, कहीं कहीं तो पेपर के दाम 2000-3000 रुपये प्रति टन तक बढ़ गए है। भले ही आज जमाना आॅनलाइन हो रहा है, लेकिन बावजूद इसके कागज की खपत भी तेजी से बढ़ रही है। आज के समय में अखबारों के सामने कागज की कम उपलब्धता और ऊंचे दाम का संकट तो है ही , इसके साथ – साथ अखबार की तीन और प्रमुख लागत- अखबार की छपाई में इस्तेमाल होने वाली इंक(स्याही) , प्लेट और डिस्ट्रीब्यूशन के दामों में भी काफी ज्यादा इजाफा हो गया है। इतना ही नहीं बीते दो सालों में तेल की बढ़ती कीमतों के कारण समुद्री मालभाड़ा की दरें भी चार से पांच गुना तक बढ़ गई हैं। नेचुरल गैस, कोयले की कीमतों में उछाल से भी अखबारी कागज मिलों पर दबाव बढ़ा है। इसके बावजूद हमारे देश में आज भी अखबारों की कीमत दुनिया के प्रमुख देशों से बेहद कम है। यह बात अलग है कि देश के नॉर्थ ईस्ट क्षेत्र में भारत के सबसे महंगे अखबार देखने को मिलते हैं और उनमें पृष्ठों की संख्या भी उत्तर भारत के अखबारों से काफी कम होती है। यह लेखक एक आर्टिकल में पढ़ रहा था कि आज अमेरिका में जहां अखबार करीब 7800 रुपए महीने की कीमत पर मिल रहे हैं ,

वहीं भारत में आज भी अखबारों की औसत कीमत लगभग लगभग 150 से 250 रुपए महीना ही है । वास्तव में, अखबारी कागज के दामों में वृद्धि के पांच प्रमुख कारण हैं, जिनकी हम यहाँ चर्चा करेंगे। पहला तो ये कि भारत अपनी जरूरत का करीब 50 फीसदी कागज रूस, कनाडा और यूरोप से आयात करता है। हाल ही में रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से अखबारी कागज की सप्लाई बाधित हुई है और कागज महंगा हो गया है। दूसरा कारण यह है कि कनाडा में सरकार द्वारा कोविड वैक्सीनेशन अनिवार्य किए जाने की वजह से ट्रक ड्राइवर्स की हड़ताल हो गई और इसके चलते कागज की सप्लाई थम गई है। तीसरा कारण यह है कि आॅनलाइन शॉपिंग बढने से ब्राउन पेपर की डिमांड बढ़ गई है। पेपर मिल ब्राउन पेपर का उत्पादन ज्यादा कर रही हैं और यही कारण है कि अखबारी कागज का उत्पादन घट गया है। जानकारी देना चाहूंगा कि वर्ष 2017 में जहां दुनिया में 2.38 करोड़ टन अखबारी कागज का उत्पादन होता था, अब यह 50 फीसदी घटकर केवल 1.36 करोड़ टन रह गया है। इसके अलावा, कोरोना महामारी में रद्दी का संकलन भी काफी घटा है, जो कि अखबारी कागज के लिए मुख्य कच्चा माल है। कीमत बढ़ने के कारणों की यदि हम बात करें तो इन कारणों में चीन की न्यूजप्रिंट आयात नीति में बदलाव और यूरोप-अमरीका में न्यूजप्रिंट बनाने वाली मिलों का बंद होना भी है। दरअसल प्रदूषण मानकों का हवाला देते हुए चीन में कुछ साल पहले रद्दी कागज के आयात पर रोक लगा दी गई थी।इससे वहां के पब्लिशर न्यूजप्रिंट को इंपोर्ट करने लगे। इस संदर्भ में यदि हम भारत की बात करें तो हम पायेंगे कि भारत एक फाइबर की कमी वाला देश है। हमारे यहाँ कागज उद्योग को “खतरनाक” करार दिया गया है और इससे चीजें और भी अधिक मुश्किल हो गई हैं। हमारे यहाँ नीतिगत उपाय के रूप में, सरकार केवल पुनर्नवीनीकरण फाइबर से बने कागज को ही ज्यादातर प्रोत्साहित करती है जिसे बेकार कागज कहा जाता है।

इसलिए भारत में अखबारी कागज बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला कच्चा माल पुराने अखबार हैं। वैसे भी हमारे देश में घरेलू तौर पर बेकार कागज का संग्रह करना इतना आसान काम नहीं है। वास्तव में यह आसान इसलिए नहीं है क्योंकि हम अपने घरों से बेकार कागज को अलग नहीं करते हैं जिससे इसकी गुणवत्ता खराब हो जाती है। यही कारण है कि हमारे पास गुणवत्तापूर्ण कच्चा माल(कागज) उपलब्ध नहीं हो पाता है और इस प्रकार से हमें कच्चे माल के आयात पर बहुत अधिक निर्भर रहना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे यहाँ अखबारी कागज की कीमतों में भी इजाफा हो जाता है। हमारे यहां वनों की भी कमी है। हम अखबारी कागज के लिए पर्याप्त वन नहीं लगा पा रहे हैं या जो वन मौजूद हैं उनकी पर्याप्त देखभाल व उनका संरक्षण नहीं कर पा रहे हैं। हमारे यहाँ कच्चे माल की काफी कमी है और यही कारण है कि हम हमारे देश में घरेलू अखबार की मिलों में कागज का पर्याप्त उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। वास्तव में,अखबारी कागज का निर्माण एक अत्यंत ऊर्जा गहन उद्योग है। एक टन कागज के लिए लगभग 1,500 किलोवाट ऊर्जा और 20,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, इसलिए, पानी, ऊर्जा और फाइबर की स्थिति से, लोगों के लिए भारत में अखबारी कागज के लिए उद्योग लगाना व्यवहार्य नहीं है, शायद यही कारण भी है कि हमने पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में अखबारी कागज के निर्माण की क्षमता में कोई वृद्धि नहीं देखी है। आज बहुत से अखबार चलाये जा रहे हैं लेकिन सरकारों द्वारा भी छोटे एवं मंझले अखबारों को पर्याप्त संख्या में विज्ञापन नहीं दिए जाने से भी अखबारों पर बंद होने का संकट गहराता दिख रहा है। आज अखबार वाले अखबार निकाल जरूर रहे हैं लेकिन अखबारों पर लागत बहुत अधिक पड़ रही है।


जो अखबार एक या दो रुपए का होता है, वास्तव में वह चार से छह रुपए का पड़ता है। यह कड़वा सच है कि आठ नवंबर 2016 को नोटबंदी, फिर विज्ञापनों में कटौती, उसके बाद जीएसटी और न्यूजप्रिंट के रेट में चालीस पचास फीसदी की बढ़ोतरी ने अखबारों का भविष्य अंधकारमय कर दिया है। बताना उचित होगा कि कनाडा अखबारी कागज का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक है। कनाडाई अखबारी कागज मिलों का उत्पादन कनाडा के प्राथमिक उद्योगों के बीच मूल्य में कृषि उत्पादन से केवल दूसरे स्थान पर है।

कनाडा में अखबारी कागज के विकास के लिए वन संसाधनों की विशाल संपत्ति जिम्मेदार है। कनाडा का मोंट्रियल कागज उद्योग के लिए विश्व प्रसिद्ध है। अखबारी कागज बनाने के लिए प्राथमिक घटक लकड़ी के गूदे की आवश्यकता होती है। हमारे देश में कनाडा की भांति अखबारी कागज के विकास के लिए वन संसाधनों की विशाल संपत्ति उपलब्ध नहीं है और जो भी उपलब्ध है, उनका हम ढंग से उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। हमारे पास विभिन्न संसाधनों की कमी है।

अखबारी कागज तैयार करने के लिए पर्याप्त मात्रा में लकड़ी के गूदे की आवश्यकता होती है जो हमारे पास उपलब्ध नहीं हो पाता है, हमारे देश की जनसंख्या भी बहुत अधिक है, वनों पर जनसंख्या का काफी बोझ है फिर भी भारत में सबसे अधिक कागज उत्पादन करने वाला राज्य पश्चिमी बंगाल है। देश में पहली पेपर मिल 1812 में सेरामपुर (बंगाल) में स्थापित की गई थी, लेकिन कागज की मांग में कमी के कारण विफल रही। 1870 में, कोलकाता के पास बल्लीगंज में फिर से उद्यम शुरू किया गया था। भारत सरकार ने कागज उद्योग को “कोर इंडस्ट्री” के रूप में परिभाषित करती है। कहीं कहीं पर यह भी विवरण मिलता है कि भारत में कागज बनाने की सबसे पहली मिल कश्मीर मे लगाई गई थी जिसे वहां के सुल्तान जैनुल आबिदीन ने स्थापित किया था। सन 1887 मे भी कागज बनाने वाली मिल स्थापित की गई थी। इस मिल का नाम टीटा कागज मिल्स था लेकिन जानकारी मिलती है कि ये मिल कागज बनाने में असफल रही थी। वैसे विश्व की पहली पेपर मिल सन् 1390 में जर्मनी के नूर्नबर्ग शहर में स्थापित की गई थी। यहाँ यह भी बताता चलूँ कि कागज के आविष्कार का इतिहास काफी पुराना है और कागज का आविष्कार सर्वप्रथम चीन में हुआ माना जाता है। आज भी चीन कागज उत्पादन में विश्व में अग्रणी देशों में से एक है। वैसे,संयुक्त राज्य अमेरिका अखबारी कागज के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है।अखबारी कागज के उत्पादन में जापान तीसरे स्थान पर और स्वीडन चौथे स्थान पर है। आज भारत में अधिकांश कागज मिलें रद्दी कागज की लुगदी से ही अखबारी कागज का निर्माण करती हैं।

इन कंपनियों के पास पुरानी नोटबुक और रद्दी कागज की काफी कमी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आज बहुत सी कंपनियों ने अखबारी कागज आपूर्ति करना ही बंद कर दिया है। भारत में अखबार ही एकमात्र ऐसा उत्पाद है , जो अपनी कीमत से आधे से भी कम में बिकता है । लिहाजा सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करने वाले देशभर के समाचार पत्रों को इस घोर संकट से बाहर निकालना होगा। आज अखबार चलाना लोकतंत्र के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सोये हुओ को जगाता है और लोकतंत्र में वॉचडॉग की भूमिका का निर्वहन करता है। मौजूदा दौर में देश में खबरों की साख का संकट है। लोकतंत्र में जनता का विश्वास जगाने के लिए सत्य बहुत अधिक महत्वपूर्ण है । सोशल मीडिया पर तो आज अनेक फेक न्यूज और सरेआम झूठ का बोलबाला है। अखबार से बढ़कर आज के समय में भरोसेमंद माध्यम और कोई भी नहीं है । संकट के समय में अखबार हम सभी आगाह भी करता है और हमारा मार्गदर्शन भी करता है। अखबार लोकतंत्र के सच्चे और सजग प्रहरी हैं।

कागज उद्योग एक कच्चे माल के रूप में लकड़ी का उपयोग करके लुगदी, कागज, कार्डबोर्ड, और अन्य सेलूलोज-आधारित उत्पादों का निर्माण करता है। अखबारों को बचाने के लिए हमें हमारे देश में वनों के रोपण पर अधिकाधिक जोर देना होगा। जब हम पर्याप्त मात्रा में कागज तैयार कर पायेंगे तो लोकतंत्र के इस सच्चे प्रहरी को भी बचा पायेंगे। ऐसा भी नहीं है कि हमारे देश में कागज बनाने के पर्याप्त संसाधन मौजूद नहीं है। भारत में कागज उद्योग कृषि आधारित है और वैश्विक स्तर पर भारत के कागज उद्योग को विश्व के 15 सर्वोच्च पेपर उद्योगों में स्थान है। भारत के महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा और असम में कागज की काफी मिलें हैं। बांस,सेवई घास, गन्ने, अनाज के तिनकों,कपास आदि से कागज बनाने के लिए कच्चा माल उपलब्ध हो सकता है। इस पर हमें ध्यान देना होगा। कागज उत्पादन के लिए पोपुलर व यूकेलिप्टस जैसे वृक्षों के वन लगाने पर भी विचार किया जा सकता है। हमें कागज की रिसाइकिलिंग करने, घरेलू कागज को तरीके से एकत्रित करने, उसकी गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए भी गंभीर व सजग प्रयास करने होंगे। बंद पड़ी मिलों को पुन: चालू करना होगा। पश्चिमी बंगाल व पूर्वोतर राज्यों में बांस के अकूत भंडार उपलब्ध है,जो कागज और पेपर बोर्ड के लिए उपलब्ध और उपयुक्त हैं। हमें वृक्षारोपण पर जोर देना होगा, तभी हम देश में कागज उद्योग को बढ़ा पायेंगे।

सुनील कुमार महला,

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